मंगलवार, 9 अगस्त 2016

होम्योपैथी : कितनी कारगर?









क्या आपने कभी होम्योपैथिक दवा बिना ये वाक्य कहे खाई है कि ‘फ़ायदा तो होना नहीं है, फ़िर भी खा लेते हैं’ और केवल यही नहीं, जितने मुँह उतनी बातें; होम्योपैथी को लेकर इतने मिथक समाज में फ़ैले हैं कि बस पूछिए मत। ‘होम्योपैथी देर से असर करती है’ या ‘असर ही नहीं करती’ या ‘इन राई बराबर ४ छोटे दानों में कितनी दवा आती है? ये केवल लोगों को धोखा देना भर है’; तो भई सच कहूँ तो इन ४ दानों में इतना जादू है कि आप रात भर में किसी अस्पताल के बेड पर नजर आओगे और असर भी देर से नहीं, चुटकियों में होगा। सच तो ये है कि लोग केवल सुनी-सुनाई बातों पर यकीन करते हैं। भरोसा तो तभी होगा ना, जब आप कुछ दूर यकीन करके इसके साथ चलेंगे?

दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे हैं, जो भरोसा करने को तो तैयार हैं, पर इस दवा के साथ दी गई विशेष हिदायत कि ‘दवा खाने के आधे घण्टे पहले और बाद में कुछ खाना-पीना नहीं है’ से इतना परेशान हो जाते हैं कि इसे खाना ही नहीं चाहते। उन्हें ऐलोपैथी की कड़वी दवा मंजूर है, उससे शरीर पर होने वाले बुरे प्रभाव भी मंजूर हैं; पर वे दिन में सिर्फ़ ३ या ४ घण्टे मुँह में बिना कुछ डाले नहीं रह सकते। मुझे इस सोच पर सिर्फ़ हँसी ही नहीं आती, बल्कि दु:ख भी होता है कि इतनी महान्‌ खोज सिर्फ़ लोगों के गलत रवैये की वजह से आज इस हालत में है।



लोग ऐलोपैथी के ‘साइड इफ़ेक्ट्स’ झेल लेंगे, परन्तु होम्योपैथी दवा नहीं लेंगे!



अब तक आप के मन में शायद ये बात आ चुकी होगी कि मैं ये सब लिख कर या कह कर ऐलोपैथी का विरोध करना चाहती हूँ। अगर आप ऐसा सोच रहे हैं, तो आप बिल्कुल गलत हैं। मेरा रवैया नकारात्मक कतई नहीं है और ऐलोपैथी को खारिज करना तो मेरा मकसद है ही नहीं। हर पैथी की अपनी अलग विशेषता और उपयोगिता है। कुछ ऐसी जगहें हैं, जहाँ होम्योपैथी ज्यादा कारगर है और कुछ जगहों पर ऐलोपैथी। परन्तु ये बात भी उतनी ही सच है कि होम्योपैथी शरीर पर बुरा प्रभाव नहीं डालती और किसी भी ऐसी बीमारी में, जिसमें अचानक मौत की संभावना ना बन रही हो, हमें पहली प्राथमिकता होम्योपैथी को देनी चाहिए। वैसे मैंने तो अपनी आँखों से कई केस ऐसे देखे हैं, जिसमें ऐलोपैथी ने हाथ खड़े कर दिए, किन्तु होम्योपैथी ने उन्हें जीवन-दान दिया। मैं आगे कभी उन व्यक्तियों से आपको परिचित करवाउँगी और मुझे शायद ये कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि वे आज होम्योपैथी के मुरीद बन चुके हैं।



कुछ लोग ऐलोपैथी के फ़ेल होने पर आज होम्योपैथी की वजह से जीवित हैं!



मुझे आश्चर्य होगा, अगर आपके मन में अब तक ये बात नहीं आई कि मैं होम्योपैथी की इतनी हिमायत क्यों कर रही हूँ? असल में मेरे पापा होम्योपैथी के डॉक्टर थे और उनके साथ रहकर मैं भी बहुत कुछ इसे जान चुकी हूँ। मैं घर के सदस्यों की छोटी-मोटी बीमारियों पर अस्पताल नहीं भागती और सच कहूँ तो मैं खुद ऐलोपैथी दवा तब तक नहीं लेती, जब तक मेरी सहनशीलता का अन्तिम विकेट ना गिर जाये। अब तो मेरे पड़ौसी भी मुझसे सलाह लेने लगे हैं। आप चाहेंगे, तो आपको भी कुछ-एक सलाह दे दूँगी। .. :))


वैसे होम्योपैथी पर ये मेरी पहली और आखिरी पोस्ट नहीं है; अभी बहुत कुछ है इसके बारे में, जो मुझे आपको बताना है। इसे आपके भी प्यार की जरूरत है। मैं अपनी इस प्यारी सखी को धीरे-२ मौत के आगोश में जाते नहीं देख सकती। फ़िर मिलती हूँ आपसे, विदा!



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शुक्रवार, 1 जुलाई 2016

पिता (कहानी)









आज सुबह से ही सिद्धान्त चाय की दुकान पर आकर बैठ गया था। घर पर रुकने का मन ही नहीं हुआ उसका। रात भी तो जैसे-तैसे करवट बदल-२ कर ही काटी थी उसने। पूरी रात परेशान रहा वह। नींद भी उससे रूठी रही। सुबह उठते ही चप्पल पहन कर बाहर आ गया। जिस चाय की दुकान पर वो कभी-२ अपने दोस्तों से ही मिलने जाया करता था, आज वहाँ से उठने का नाम ही नहीं ले रहा था। चाय वाले ने भी उससे कुछ नहीं कहा; सुबह से उसकी दस चाय भी तो पी थीं सिद्धान्त ने। लेकिन अब उस दुकान वाले से भी रहा नहीं गया, पूछ ही बैठा,

“क्या हुआ बाबूसाब? बड़े परेशान लग रहे हो, सुबह से घर भी नहीं गये।”


क्या बताता सिद्धान्त। कल रात से एक ही बात रह-२ कर उसके दिलो-दिमाग में घूम रही थी। ऐसा कैसे हो सकता है? जिस पिता को अपना आदर्श मान कर वह बड़ा हुआ था, जिनकी हर बात का पालन उसके लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन जाती थी, जिन्होंने ही उसे पग-२ पर सत्य और ईमानदारी का पाठ पढ़ाया है, वो ही कैसे किसी व्यक्ति से रिश्वत ले सकते हैं? उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह अपनी आँखों पर भरोसा करे या अपने दिल पर। उसकी आँखों को धोखा भी तो हो सकता है। पर रात से अभी तक इसी उहापोह से जूझते हुये भी ना तो दिल और ना ही दिमाग उसके इस सवाल का जवाब दे पाने में सक्षम थे। आखिरकार उसने निर्णय लिया कि वो इस बारे में अपने पिता से बात करेगा। ये सोचकर उसके कदम घर की ओर उठ जाते हैं।

दरवाजे पर ही उसे पिताजी मिल जाते हैं, जो उसके इन्तजार में परेशान होकर यहाँ-वहाँ चहल-कदमी कर रहे थे। उसे देखते ही उसका हाथ पकड़ कर अन्दर ले जाते हैं और अपने पास बैठाकर बड़े प्यार से उसके सिर पर हाथ फ़ेरते हुये पूछते हैं,

“कहाँ चला गया था सुबह-२? पूरा घर तेरे लिये परेशान था और तू खुद भी तो इतना परेशान लग रहा है। आखिर बात क्या है बेटा?”


अचानक सिद्धान्त की आँखों से आँसुओं का जैसे बाँध ही फ़ूट पड़ता है और वो रोते-२ अपने पिता के कदमों में गिर जाता है।

“पिताजी मुझे माफ़ कर दीजिये। एक बात मुझे लगातार खाये जा रही है और जब तक मुझे इसका जवाब नहीं मिल जाता; मेरे लिये एक-२ साँस भारी है।”


पिताजी उसे फ़टी आँखों से देखे जा रहे थे।

“ऐसी क्या बात है, जिसने तुझे इतना परेशान कर दिया है?”


“पिताजी कल मैंने आपको उस व्यक्ति से बातें करते सुना और जाते-२ वह व्यक्ति आपको नोटों से भरा बैग भी पकड़ा गया था; जिसे आपने सबसे छुपा कर अपनी अलमारी में रख दिया था। बस यही बात मेरे सीने पर पत्थर की तरह रखी हुयी है। ऐसा क्या हो गया, जिसने आपको ऐसा कदम उठाने पर मजबूर कर दिया। आप तो उन लोगों में से थे, जिसे रूखी रोटी खाना मंजूर था, पर रिश्वत का एक रुपया भी गवारा ना था।”


पिताजी उसे एकटक देखते रहे, उनकी आँखों में दूर-२ तक खालीपन नज़र आ रहा था, जैसे कि वो खुद के ही अस्तित्व को टटोल रहे हों। अचानक उन्होंने सिद्धान्त के हाथ को अपने हाथ में लिया, जिस पर आँसू की दो बूँद छलक पड़ीं।

“तेरे लिये बेटा! विदेश जाना चाहता था ना तू, जिसके लिये पढ़ाई में दिन-रात एक किये रहता है।”


वे अब भी उसकी आँखों में देख रहे थे।

“पर आपके स्वाभिमान की कीमत पर नहीं पिताजी! आप मेरा अभिमान हैं, मैं इतना स्वार्थी नहीं हूँ।”


“मुझे स्कॉलरशिप मिल जायेगी और ना भी मिले, तो कोई बात नहीं। मैं खुद को ऊपर उठाने के लिये आपको गिरते हुये नहीं देखना चाहता।”

और आगे बढ़कर उसने पिता को थाम लिया, जो अचानक ही बहुत कमजोर नज़र आने लगे थे..........।


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मंगलवार, 7 जून 2016

मैं और मेरे पापा – ४ (पापा की यादों का कोलाज़)







आज पापा के जन्मदिन पर उन्हें याद करते हुये...

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अभी कुछ दिनों से फ़ेसबुक पर # Song Blast  आया देख कर याद आया कि मैंने पापा के संगीत के प्रति प्रेम के बारे में तो कुछ लिखा ही नहीं। यदि ये कहें कि संगीत उनकी रगों में लहू की तरह बहता था, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। मुझमें जो संगीत के प्रति प्रेम कूट-२ कर भरा है, ये भी उनकी ही देन है। एक तरह से कहें, तो हम दोनों की जान है ‘संगीत’। बहुत सी बातों में एक ये बात भी थी, जिसने हमारी दोस्ती को पक्का बनाया। .. :))

उन्हें सुनने के साथ-२ गाने का भी शौक था। अच्छा गला भी पाया था उन्होंने। वो रात में सोने से पहले भजन सुनाया करते थे। उनका एक प्रिय भजन था,

“हमें हे कृष्ण, हे केशव तुम्हारा ही सहारा है
ना तुमको छोड़कर संसार में कोई हमारा है।”


आजकल ये भजन मैं अपनी बेटी को सुनाती हूँ। उसने भी अपनी माँ से विरासत में संगीत पा लिया है।
और हाँ, इसी सन्दर्भ में पापा की एक शरारत याद आ गई। उन्हें टी.वी. या रेडियो पर आ रहे मेरे प्रिय गीत के साथ अपना सुर जरूर लगाना होता था, क्योंकि ये मुझे सख्त नापसन्द था; और मैं बेचारी, गुस्सा दबाकर मुस्कुराती रहती थी। .. :))

हाँ, एक और बात..... कविताओं के प्रति मेरी समझ शायद उन्होंने ही विकसित की। ये बात और है कि इसका प्रारम्भ ‘कवि-सम्मेलन’ से हुआ। उन्हें टी.वी. पर कवि-सम्मेलन देखना बहुत प्रिय था और मैं भी उनके साथ चिपक कर बैठी रहती थी। हमारे पागलपन की हद ये थी कि हम एक-दूसरे को कवि-सम्मेलन दिखाने के लिए सोते से भी जगा देते थे, चाहे वो आधी रात को ही क्यों ना आ रहा हो; और दूसरा इस बात से नाराज भी नहीं होता था। इसी पागलपन के दौरान ११ साल की उम्र में मैंने अपना तख़ल्लुस ‘गुंजन’ रख लिया था। हालांकि उस समय मुझे कविता का ‘क’ भी नहीं आता था। कवि-सम्मेलन देख-देखकर ही मैं बचपन में ‘कवियत्री’ होने के सपने देखा करती थी। लिखती तो मैं आज भी बहुत अच्छा नहीं हूँ; मैं तो बस उस छोटी सी बच्ची के बड़े से सपने को जिन्दा रखे हुये हूँ। ये मुझे बाद में पता चला कि जिस तखल्लुस को उस बच्ची ने इतने प्यार से अपने लिए चुना था, वो उसके पसंदीदा कवि ‘नीरज’ के बेटे का नाम था, जो शायद उन्होंने ही रखा होगा। फ़िर तो इसे छोड़ने का सवाल ही नहीं पैदा होता। हालांकि अब उस बच्ची के पसंदीदा शायर अहमद फ़राज और हरिवंश राय बच्चन हैं।

पापा के संगीत-प्रेम की हद ये थी कि उन्होंने ‘बुश’ का रेडियो उस समय खरीदा था, जब इसके लिए उन्हें ‘इन्कम-टैक्स’ भी देना पड़ता था। आप शायद ये सुनकर अपना सिर पकड़ लेंगे कि इसे खरीदने के लिए उन्होंने अपनी ३ महीने की तनख्वाह एकसाथ कुर्बान कर दी थी। रेडियो का प्रसारण भी तब २४ घण्टे नहीं होता था, सो बाकी के समय में संगीत की मधुर सुर-लहरियों के लिए ‘पैनासोनिक’ के टेपरिकॉर्डर का इन्तजाम भी किया गया। हद तो ये थी कि रात में पापा के सिरहाने के एक तरफ़ रेडियो होता था और एक तरफ़ टेपरिकॉर्डर। उनकी ४० साल पहले की खरीदी गई मेरी सूरत तेरी आँखें, प्रदीप के गीत, हरिओम शरण के भजन, के. एल. सहगल, शमशाद बेग़म, सुरैया आदि की कैसेट्‌स मेरे पास आज भी मौजूद हैं। मैंने भी पी.सी.एस. के इण्टरव्यू के लिए सेलेक्शन होने पर उनसे ‘सोनी’ का कैसेट प्लेयर गिफ़्ट में लिया था।

संगीत-प्रेम के साथ-२ उनके फ़िल्म-प्रेम के भी कई मजेदार किस्से हैं। परन्तु इस बात में मैं उनसे भिन्न हूँ; मैं फ़िल्म देखने के मामले में बहुत ‘चूजी’ हूँ। मैं सिर्फ़ देखने के लिए कोई फ़िल्म नहीं देख सकती। मैं सिर्फ़ वही फ़िल्में देखना पसन्द करती हूँ, जो मुझे कुछ रातों तक बेचैन रखे, जिसका कोई टुकड़ा मेरे जेहन में अटका रह जाये। परन्तु पापा, उन्हें सिर्फ़ फ़िल्म देखने से मतलब था। ऐसा नहीं है कि वो किसी फ़िल्म को देखने के बाद उसे बुरा नहीं कहते थे, पर वो उसे अधूरा भी नहीं छोड़ते थे। हालांकि नई फ़िल्में उन्हें थोड़ा कम पसन्द थीं।

एक समय जब टॉकीज केवल बड़े शहरों में हुआ करती थीं और टी.वी. भी इतना प्रचलन में नहीं था, तब पापा ‘हाथ का पंखा’ साथ में लेकर ‘फ़ट्टा टॉकीज’ में फ़िल्में देखने जाया करते थे। फ़ट्टा टॉकीज में चारों तरफ़ टाट के पर्दे डालकर वीडियो-प्लेयर पर फ़िल्म दिखाई जाती थी। जब हमारे घर टी.वी. आया, तो शायद ही कोई फ़िल्म हो, जो उन्होंने ना देखी हो। टी.वी. चलाने के लिए एक अलग बैटरी का इन्तजाम भी कर रखा था उन्होंने। पुरानी फ़िल्मों के सारे कलाकारों से मेरा परिचय उन के द्वारा ही हुआ। बलराज शाहनी, मीनाकुमारी और राजकपूर हमारी ‘कॉमन पसन्द’ थे। पर मैं उनके साथ कभी रात में जागकर फ़िल्म नहीं देखती थी, क्योंकि फ़िल्म खत्म होने के बाद वो हमेशा चाय की फ़रमाइश कर देते थे और मुझे उस समय जोरों की नींद आ रही होती थी। रात में जागना मैंने शायद उनसे विरासत में पाया है।

तो जब फ़िल्मों और संगीत से इस कदर उनकी यादें जुड़ी हों, तो कैसेकर उन्हें भुलाया जा सकता है। रोज ही कोई ना कोई गीत उनकी याद दिला जाता है और आँखें छलछला आती हैं। पर उन बूँदों में वो हमेशा मुस्कुराते दिखते हैं, ताकि मुझे मुस्कुराता हुआ देख सकें।

मुझे सबसे ज्यादा दु:ख इसी बात का है कि वो मेरे दु:खों का बोझ अपने सीने पर लेकर गये हैं और मैं उन्हें बता भी नहीं पाई कि मैंने इनके साथ खुशी से जीना सीख लिया है।

उनके एक पसन्दीदा गीत की पंक्तियों के साथ विदा लेती हूँ.....

“मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया,
                  हर फ़िक्र को धुँए में उड़ाता चला गया।”


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शुक्रवार, 20 मई 2016

अगर तू है, तो कहाँ है?









लोग ईश्वर को नहीं मानते!
उनका कहना है कि अगर ईश्वर है, तो वो संसार में फ़ैले भ्रष्टाचार, अत्याचार, हिंसा, मारकाट, असहनशीलता और बुराइयों को क्यों नहीं रोकता?

पर शायद आप नहीं जानते। ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है। ना ही वह हमारे द्वारा किये गये कार्यों के लिए उत्तरदायी है। ईश्वर, अल्लाह, GOD  चाहे जो भी नाम दे दें आप; वो प्रकृति में ३ प्रकार की शक्तियों के रूप में विद्यमान है : -
 
सात्विक, राजसिक और तामसिक।

ये ऊर्जायें प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न-२ मात्रा में मौज़ूद रहती हैं और उसी के फ़लस्वरूप वो अपना कर्म करता है। आज हम भौतिकवादी प्रवृत्तियों और लालसाओं में इतना जकड़ गये हैं कि सर्वत्र नकारात्मक और तामसिक शक्तियों का बोलबाला है। सात्विकता की ओर तो जैसे हम बहना ही नहीं चाहते। हर अच्छी बात की ओर से जैसे हमने मुँह फ़ेर लिया है।

समाज में फ़ैली इन बुराइयों को रोकने कोई ईश्वर या अल्लाह नहीं आएगा। हमें ही उनका प्रतिनिधि होना होगा। अपने अन्दर सात्विकता पैदा करनी होगी। समाज में सकारात्मक ऊर्जा को बढ़ावा देना होगा। तभी ये सारी बुराइयाँ खत्म होंगी और हम एक बेहतर युग की ओर कदम बढ़ायेंगे।

यहाँ एक सवाल आप के मन में आ सकता है कि हम अकेले क्या कर सकते हैं? तो मुझे यहाँ एक सुन्दर कथन याद आ रहा है कि,

“एक अकेला दिया अँधेरे को तो नहीं हरा सकता, परन्तु उसके लिए परेशानी तो पैदा कर ही सकता है।”

आप भी समाज में फ़ैली बुराइयों को फ़लने-फ़ूलने मत दीजिए। हमारे आसपास मौजूद बुरे लोगों को चैन से मत बैठने दीजिए। एक दिन ऐसा भी आयेगा, जब काफ़िला आपके साथ होगा और वो अकेले खड़े होंगे, ये सोचते हुये कि ‘हम अकेले क्या कर सकते हैं?’

जब हम में से प्रत्येक व्यक्ति सात्विकता और सकारात्मक ऊर्जा से भरा होगा, तो उस दिन हमें प्रत्येक व्यक्ति ही ईश्वर का साक्षात्‌ स्वरूप प्रतीत होगा और हमें ये पूछने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी कि,

‘अगर तू है, तो कहाँ है?’



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बुधवार, 27 अप्रैल 2016

गूँगी.. (संस्मरण)









गूँगी..... आसपास के सभी लोग उसे इसी नाम से बुलाते थे। बोल-सुन नहीं पाती थी वो। मुझे लगा अपना नाम ना बता पाने की असमर्थता के चलते ही लोग उसे इस नाम से पुकारने लगे होंगे। पर एक दिन जब वो अपनी भतीजी के साथ होली का बायना लेने हमारे घर आई, तो उसकी भतीजी के द्वारा ही मुझे इस सच का पता चला कि उसका कोई नाम रखा ही नहीं गया था, सब घर वाले भी उसे ‘गूँगी’ ही कहते थे। उस एक क्षण को मन में ये विचार आया कि अच्छा है उसे ज़रा भी सुनाई नहीं देता, वरना इस समाज की कठोरता उसे भीतर तक तोड़ देती और ये जो हर समय उसके चेहरे पे मुस्कान खिली रहती है, इस से भी हम सब वंचित रह जाते। वैसे नियति ने जो क्रूर खेल उसके साथ खेला था, उसे तो वो कब का अपने आत्मबल से पछाड़ चुकी थी। भले ही लोगों ने उसे लाचार समझा हो, पर उसने कभी खुद को दूसरों पर बोझ नहीं बनने दिया और अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए अपना पारिवारिक पेशा अपना लिया। जी हाँ, हमारे यहाँ टॉयलेट शीट साफ़ करने आती थी वो, वही जिसे आपका So Called समाज ‘भंगन’ की उपाधि से नवाजता है।

यूँ तो वो आसपास के सभी घरों में काम करती थी, पर मुझसे एक अजीब सा रिश्ता जोड़ लिया था उसने। जब तक मुझसे वो २-४ बातें ना कर ले, उसे चैन नहीं पड़ता था। इतने दिनों में उसने मुझे और मैंने उसे इशारों में अपनी बात समझाना सीख लिया था। एक दिन आई तो बड़ी देर तक हँसती रही। वजह पूछी तो बोली कि आपसे २ घर छोड़कर जो घर है, उन्हें जरा भी समझ नहीं है। एक के बाद एक ४ बच्चे हैं उनके और सब १-१ साल के अन्तर पर। जबकि केवल २ बच्चे होने चाहिए और उनमें भी ३-४ साल का अन्तर जरूर हो। फ़िर खु़द ही आगे बताने लगी कि उसके खुद के २ लड़के हैं, एक ४ साल का और एक ८ साल का। उस दिन मुझे पता चला कि वो शादी-शुदा है। ये पूछने पर कि उसका पति कहाँ है, बोली.. ‘छोड़ दिया उसे, बहुत मारता था मुझे’। उसका बड़ा बेटा पति के पास ही था और छोटे को ये अपने साथ ले आई थी। अचानक ही बड़े बेटे को याद करके उसकी आँखें भर आईं। फ़िर थोड़ी देर में ही उत्साहित होकर बोली ‘मैं अपने इस बेटे को खूब पढ़ाउँगी, खूब पैसे कमायेगा बड़े होकर। फ़िर अपने बड़े बेटे को भी अपने पास ले आउँगी’

उस दिन उसकी बातें सुनकर मैं अचरज के सागर में गोते लगाती रही। वो तो चली गई, पर मुझे लहरों के बीच डूबता-उतराता छोड़ गई। मैं यही सोचती रही कि आजकल की पढ़ी-लिखी लड़कियाँ भी अपने पति की ज्यादती को अपना नसीब मानकर सहती रहती हैं, शायद समाज ने यही उन्हें घुट्टी में पिलाकर बड़ा किया है। पर ‘वो’ एक समाज से निष्कासित जाति में पैदा होकर भी खुद को अपने बूते खड़ा रखने का हौसला रखती है, हर जुल्म को सहने से इन्कार करती है; अनपढ़ होते हुये भी इतनी समझदारी की बातें करती है और सबसे बड़ी बात, शारीरिक रूप से अक्षम होने के बाद भी किसी के समक्ष झुकने से इन्कार करती है। शायद तभी स्त्री को ‘आदिशक्ति’ के नाम से विभूषित किया जाता होगा।


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गुरुवार, 31 मार्च 2016

कहीं हम डार्विन के वंशज तो नहीं हैं?









क्या आपको नहीं लगता कि हमारा (So called) समाज डार्विन के प्रचलित सिद्धान्त ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ (Survival of the fittest) पर कुछ ज्यादा ही यकीन करता है और लगभग अट्टाहस करता हुआ ऐलान करता है कि ‘जो डर गया, वो मर गया’। सच कहूँ, तो आप यकीन नहीं मानेंगे कि यही समाज फ़िर उन लोगों को डराने से बाज नहीं आता, जो उनके सामाजिक खाँचे में फ़िट नहीं बैठते। कभी-२ तो ऐसा लगता है जैसे डार्विन अपने ही वंशज छोड़ गये हैं, अपने सिद्धान्त की प्रामाणिकता को पुष्ट करने के लिए।

असुन्दर तथा शारीरिक एवं मानसिक रूप से अक्षम लोगों के सम्मान और उनके अधिकारों के बारे में बात किए हुये अभी चन्द दिन ही बीते होंगे कि एक नया मुद्दा सामने आ गया समलैंगिकता का। हम लोगों को नकारने और दुत्कारने में जितनी तत्परता दिखाते हैं, उतनी ही तत्परता से बाहें फ़ैलाकर लोगों को गले लगाने की पहल क्यों नहीं करते? क्या आपको नहीं लगता कि समाज की अनेक समस्याओं की जड़ में एक ही बात विद्यमान है कि हम मन से ज्यादा प्रमुखता तन यानि शरीर को देते हैं। अगर किसी का शरीर किसी व्याधि से ग्रस्त है या आपके सौन्दर्य के पैमाने से जरा भी बाहर है, तो आप उसे नकारने में देर नहीं लगाते; परन्तु आपकी इस कुत्सित सोच का क्या, जो आपके मन को कुरूप बना रही है।

हम लोगों के लिए सहूलियतें पैदा नहीं करना चाहते, बल्कि उनके लिए बाधाएँ खड़ी करने के नये-२ तरीके ईज़ाद करते रहते हैं। हम लोगों का उपहास करना जानते हैं, उन पर उँगली उठाना जानते हैं; परन्तु उनकी उँगली पकड़ कर दो कदम उनके साथ नहीं चल सकते, उन्हें प्यार से गले नहीं लगा सकते।

वैसे कुछ लोग ऐसे भी होंगे, जो ये सब पढ़ने के बाद सोच-२ कर खुश होंगे व गर्व महसूस करेंगे कि वे कम-अस-कम डार्विन के वंशज तो प्रमाणित नहीं हुये। परन्तु क्या ये उनकी नैतिक ज़िम्मेदारी नहीं, कि वे समाज को इन डार्विन के वंशजों से मुक्त करायें? वे समाज में बदलाव तो चाहते हैं, परन्तु सामाजिक बहिष्कार की वजह से चुप रहते हैं। अगर आप बदलाव चाहते हैं, तो बदलाव करने की हिम्मत दिखायें। पहल करें, उसके होने का इन्तज़ार ना करें; क्योंकि मसीहा जन्म नहीं लेते, समाज में से ही पैदा होते हैं।



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बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-३








खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-१

खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-२



परन्तु मेरी खुशी अब भी अधूरी थी। लाख कोशिशों के बाद भी कुहू के मुँह से एक भी बोल नहीं फ़ूटा। हाँ, अस्फ़ुट स्वरों में पूरे दिन कुछ अजीब तरह की आवाजें जरूर निकालती रहती थी। मुझे लगा कि बिना कुछ बोले तो इसके लिए कोई भी राह आसान नहीं होगी; पर एक आशा की किरण अब भी बाकी थी, वो था म्यूजिक के प्रति इसका प्रेम। वैसे तो इसे सभी तरह के वाद्य-यन्त्रों से प्यार था, पर सबसे प्रिय था सिंथेसाइजर। कभी रोते हुए भी इसके सामने सिंथेसाइजर रख दो, तो मैडम जी रोना भूल कर अपनी उँगलियाँ उस पर नचाने लगती थीं। बचपन से अब तक दो सिंथेसाइजर खराब कर चुकी थीं ये।

मैंने घर पर ही इसके लिए सिंथेसाइजर सिखाने के लिए एक टीचर का इन्तजाम किया। पर एक-दो महीने बाद ही वो हार मान गए। कुहू को सिखाना इतना आसान काम नहीं था, क्योंकि वो बहुत ही मुश्किल से किसी बात को समझती थी। एक टीचर हार सकता था, पर एक माँ कभी नहीं। वैसे भी कुहू को सिखाना उनके बनिस्बत मेरे लिए आसान काम था; क्योंकि इतने सालों में मैं उसे बहुत अच्छी तरह समझने लगी थी। मैंने अपनी कुहू से वादा किया,

“तू चिन्ता मत कर। मैं सिन्थेसाइजर को तेरे लिए खुशी का वो साज़ बना दूँगी, जिस पर तू एक दिन अपनी ज़िन्दगी के तराने गुनगुनाएगी।”

इसके बाद जो टीचर मैंने कुहू के लिए लगाया था, उनसे मैं खुद घर पर ही सिंथेसाइजर सीखने लगी। फ़िर नए-२ तरीके ईज़ाद कर कुहू को सिखाना शुरू किया। अब धीरे-२ कुहू की-बोर्ड समझने लगी थी और उम्र बढ़ने के साथ-२ जैसे-२ उसकी समझ बढ़ी, मेरे लिए उसे सिखाना आसान होता गया। एक दिन तो उसने मुझे टोक दिया और इशारे से समझाया कि मैं गलत सुर पर हूँ। मैं खुशी से खिल उठी, ये सोच कर कि आखिर मेरी मेहनत बेकार नहीं गई। अब तो की-बोर्ड पर उसकी उँगलियाँ थिरकती थीं।

एक दिन अखबार में एक संगीत-संध्या प्रोग्राम का एड देख कर मेरी आँखें चमक उठी। प्रोग्राम नेशनल लेवल का था। प्रत्येक बच्चे को किसी भी वाद्य-यंत्र पर १५ मिनट तक परफ़ॉर्म करना था। मैंने फ़ॉर्म लाकर कुहू का नाम भी रजिस्टर करवा दिया।

प्रतियोगिता वाले दिन जब हम कार्यक्रम-स्थल पर पहुँचे, तो शुरू में कुहू भीड़ देख कर घबराने लगी। पर धीरे-२ हमने उसे संयत किया। हालाँकि इस कार्यक्रम में उसे दूसरा स्थान मिला, पर उसके नाम को एक पहचान मिल गई थी।

अब तो कई स्टेज शो के लिए उसे ऑफ़र भी आने लगे। एक संस्था ने तो उसे स्कॉलरशिप भी देनी शुरू कर दी। अब धीरे-२ उसका आत्मविश्वास तो बढ़ ही रहा था, साथ ही ज़िन्दगी के प्रति उसकी ललक भी देखते ही बनती थी।

धीरे-२ उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ने के साथ-२ कुहू सफ़लता के नए-२ सोपान भी पार करती चली गई। मेरे घर के शो-केस अब उसके अवार्डों से भरने लगे। एक शहर से दूसरे शहर फ़ैलते-२ उसकी ख्याति इस देश की सीमाओं को भी पार कर गई। अब अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कुहू के नाम को पहचान मिल गई थी। अब उसके नाम से स्टेज शो ऑर्गनाइज होने लगे थे। हम भी उसके साथ-२ एक देश से दूसरे देश के सफ़र पर निकल पड़े थे।

एक दिन अचानक टी.वी. देखते हुए मेरी खुशी का ठिकाना ना रहा, जब घोषणा हुई कि कुहू को ग्रेमी अवार्ड देने का निर्णय किया गया है। उसने अपने और हमारे साथ-२ इस देश का नाम भी रौशन कर दिया था। वो तो शायद ही ज़िन्दगी में कभी ये जान पाए कि उसने क्या पा लिया है; पर उसने अपनी माँ को ये एहसास जरूर करा दिया था कि उसने अपनी बेटी के लिए जो सपना देखा था, वो गलत नहीं था। शाम को राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा अन्य गणमान्य लोगों के बधाई सन्देश भी प्राप्त हुए। मुझे ये सारा कुछ किसी स्वर्ग जैसी फ़ीलिंग दे रहा था।

आज तो उन लोगों के भी फ़ोन आ रहे थे, जो मेरी बेटी को मेरी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा ग्रहण मानते थे और सोचते थे कि मैं इसके अन्धकार में ही एक दिन घुट-२ कर मर जाऊँगी। पर मेरी बेटी ने तो अपनी आभा से उनकी आँखें चौंधिया दीं।

अचानक रेड लाइट पर गाड़ी में लगे ब्रेक से मेरी तंद्रा टूटी और मैं एक झटके में अपने अतीत से वापस आ गई। नज़र घुमाकर मैंने अपनी बेटी की ओर देखा, जो इस सब से बेखबर शहर में चारों ओर जगमग करती लाइटें देख कर खुश हो रही थी और मेरे कानों में खुशी के साज पर बजते मद्धम-२ सुर अठखेलियाँ कर रहे थे..........!!

                                

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                                                                                                             -समाप्त-



बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-२








खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-१


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शाम को डॉक्टर फ़िर आईं और मेरे चेहरे की तरफ़ देखते हुए आश्चर्यमिश्रित मुस्कान से पूछा,

“बहुत फ़्रेश लग रही हैं आप?”

“हाँ डॉक्टर! ज़िन्दगी से एक नई जंग लड़ने के लिए खुद को तैयार जो करना है।” ये कहते हुए अपने आप से फ़िर एक वादा किया, कभी घबराकर हिम्मत ना हारने का।

थोड़ी देर बाद नर्स ने मेरी बेटी को लाकर मेरे हाथों में दिया, और मुस्कुरा कर कहा,

“अब आप खुद इसे अपना दूध पिला सकती हैं। आपको अच्छा नहीं लगता था ना, बोतल में दूध निकाल कर देना?”

मैं कुछ देर तो बैठ कर उसे देखती ही रही और उसके नर्म-२ शरीर पर अपनी उँगलियाँ फ़िराती रही। उसके सिर का एक भाग कुछ फ़ूला हुआ था। मैंने नर्स की तरफ़ प्रश्नवाचक निगाहों से देखा।

“इसके ब्रेन का इस तरफ़ का हिस्सा डेमेज हुआ है, इसलिए ये इस तरह फ़ूला है।” नर्स ने मेरी आँखों में झाँकते हुए कहा।

वो शायद मेरी आँखों में दर्द ढूँढ़ रही थी। पर उसे वहाँ हौसले और आत्मविश्वास के सिवा और कुछ ना मिला। मैंने अपनी बेटी को अपने सीने से चिपटा लिया और उस सुख का अनुभव करने लगी, जिसके लिए मैं इतने दिनों से तरस रही थी।

अगले दिन मैं अपनी प्यारी सी गुड़िया ‘कुहू’ को लेकर घर आ गई। मैं खुश थी कि मेरे पति भी मेरी इस जंग में हर कदम पर मेरे साथ थे।

मैंने लोगों से मिलना-जुलना, बात करना सब बन्द कर दिया, क्योंकि सभी लोगों की ज़ुबान पर एक ही बात रहती थी,

“तुम्हारी तो ज़िन्दगी ही बरबाद हो गई। भगवान ने एक तो बेटी दी, वो भी ऐसी। इससे अच्छा तो वो इसे उठा ले। बच्चों का क्या है, और हो जाएँगे।”

मैं अपनी बेटी को ऐसी बद्दुआओं से बचा कर रखना चाहती थी। इसलिए उसे ऐसे लोगों से बचा कर रखना जरूरी था।

धीरे-२ हम लोग सामान्य ज़िन्दगी की ओर लौटने लगे। इसके बाद दौर चला फ़िज़ियोथेरेपी, एक्यूप्रेशर और होम्योपैथी का। सुबह से शाम हो जाती थी, अंग-२ थक कर चूर हो जाता था; पर ज़िन्दगी फ़िर भी आँखों में मुस्कुराती थी, जब मैं अपनी बेटी की हालत में थोड़ा सा भी सुधार देखती थी। शुरुआत में कुहू एक रक्त-माँस की बनी गुड़िया की तरह थी, जिसमें जीवन के चिन्ह के रूप में सिर्फ़ साँसों का आना-जाना और पलकों का झपकना ही था। दो-एक दिन में कभी रो देती थी, तो कभी एक-आध बार हाथ-पैर हिला देती। मैं अक्सर उसके आगे-पीछे से, उसके दायें-बायें से उसका नाम लेकर पुकारती कि कभी तो वो मेरी तरफ़ देखे, पर हमेशा निराशा ही हाथ लगती।

एक दिन अचानक मोबाइल में बजी रिंगटोन की तरफ़ उसने अपना सिर घुमाया। मेरी आँखों से आँसू की एक बूँद टपक पड़ी,

“ये म्यूजिक समझती है।” मैं मन ही मन बुदबुदाई।

बस उसी पल मुझे वो राह दिख गई थी, जिस पर मुझे आगे बढ़ते जाना था। मैंने ठान लिया था और मन ही मन दुहराया,

“मैं म्यूजिक को इसकी ज़िन्दगी बना कर छोड़ूँगी।”

बस उस दिन के बाद से जब भी मार्केट जाती, मैं अपनी कुहू के लिए कोई ना कोई म्यूजिक वाला खिलौना उठा लाती। म्यूजिकल ड्रम, ढोलक, सिंथेसाइजर, बाँसुरी और वो गाना गाने वाली गुड़िया, कितने ही तो खिलौने इकट्ठे हो गए थे उसके पास। वो कभी एक खिलौना उठाती, कभी दूसरा; दस-२ मिनट में तो मूड चेंज होता था हमारी गुड़िया रानी का।

समय धीरे-२ बीत रहा था। फ़िज़ियोथेरेपी ने अपना असर दिखाना शुरु कर दिया, अब वह अपने सहारे ५-१० मिनट बैठने लगी थी। होम्योपैथी से उसके समझने की शक्ति भी धीरे-२ बढ़ रही थी। ३ साल की होते-२ अब वह पूरी तरह अपने सहारे बैठने लगी।

एक दिन मैं उसे उसके खिलौनों के पास छोड़ कर किचन में खाना बनाने चली गई। कुछ देर बाद जब लौट कर कमरे में वापस आई, तो वो अपनी जगह पर नहीं थी। मेरा दिल जोर-२ से धड़कने लगा। पर अचानक मेरी नज़र कमरे के एक कोने पर गई; वो वहाँ पर बैठी रैक में से चप्पल, जूते निकाल-२ कर फ़ेंक रही थी। मेरी खुशी से लगभग चीख निकल गई थी,

“ये तो अपने-आप खिसकने भी लगी।”

शाम को जब मेरे पति घर आए, तो मैंने अपने हाथों से बनाए बेसन के लड्डू उनके सामने रखे; जब उन्होंने कारण पूछा तो मैंने मन्द-२ मुस्काते हुए सारी बात बताई। वो भी बहुत खुश हुए, पर उन्हें अफ़सोस था कि ये नज़ारा वो अपनी आँखों से नहीं देख पाए।

अब मेरे लिए नया माइल-स्टोन था, इसे इसके पैरों पर खड़ा करना। मैं अपनी नौकरी छोड़ चुकी थी, मेरे पति ने आर्थिक-ज़िम्मेदारी पूरी तरह से अपने कन्धों पर उठा ली थी। मैंने सब कुछ छोड़ कर अपना पूरा ध्यान अब कुहू पर केन्द्रित कर दिया था। २ साल की मेहनत के बाद मैं इसे इसके पैरों पर खड़ा कर पाई; अब तो इसने धीरे-२ चलना भी सीख लिया था। हालाँकि कदम डगमगाते थे, पर मुझे पता था जल्दी ही ये कमी भी दूर हो जाएगी।


            
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                                                                                                               ...क्रमश:


खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-३




बुधवार, 10 फ़रवरी 2016

खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-१








मेरे आँसू लगातार बहे जा रहे थे और मैं उन्हें रोकने का कोई प्रयास नहीं कर रही थी, क्योंकि मैं इन आँसुओं में अपने उन सारे दु:खों, खीजों, अपमान, तंज और लोगों द्वारा दिए गए बेचारगी के एहसास को बहा देना चाहती थी, जो पिछले अनगिनत सालों में मैंने अपने दिल पर झेले थे। पूरा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज रहा था, आज मेरी बेटी को ‘ग्रेमी अवार्ड’ मिला था; वही बेटी, जिसके पैदा होने के बाद से लगातार हर दूसरे व्यक्ति ने इसके मरने की दुआएँ माँगी थीं, ताकि मैं खुशी-२ जी सकूँ; पर मेरी खुशी तो मेरी बेटी में थी। आज उसने मेरी खुशी को मेरी पलकों पर सजा दिया था। एक सामान्य व्यक्ति के लिए ग्रेमी अवार्ड आकाश के तारे तोड़ने के समान होता है, फ़िर मेरी बेटी तो मानसिक रूप से विकलांग थी।

“ नन्दिनी, चलो तुम्हें भी स्टेज पर बुला रहे हैं,” मुझे खयालों में खोया देख मेरे पति ने मेरे कन्धे पकड़ कर मुझे हिलाया।

मैं अपने बहते आँसुओं को पोंछ कर मुस्कुराते हुए मंच की ओर बढ़ी और वहाँ पहुँच कर अपनी बेटी को चूमकर गले लगा लिया। पूरा हॉल एक बार फ़िर तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।

गाड़ी से होटल वापस लौटते हुए मेरा मन बार-२ अतीत के भँवर में हिचकोले खा रहा था। मेरे सामने हॉस्पीटल का वो दृश्य बार-२ घूम रहा था, जब मैं अपनी बेटी के जन्म के सात दिन बाद भी उसके अपनी गोद में दिए जाने का इन्तजार कर रही थी। उसे जन्म देने के बाद से ही NNICU में रखा गया था। तभी एक सीनियर रेजीडेण्ट डॉक्टर ने मेरे कमरे में प्रवेश किया और मुस्कुराते हुए पूछा,

“अब कैसी तबियत है आपकी?”

“मैं ठीक हूँ डॉक्टर, मेरी बेटी कैसी है? मैं उसे गोद में कब खिला पाऊँगी?” मेरा ध्यान मेरी बेटी से हट ही नहीं पा रहा था।

“वो अब पहले से बेहतर है। वैसे आपके कितने बच्चे और हैं?” डॉक्टर ने कुछ उत्सुकतावश पूछा।

“यही पहली है और आखिरी भी।” मैनें चहकते हुए जवाब दिया।

पर डॉक्टर के चेहरे की चमक अचानक खो गई और उन्होंने कुछ बुझे हुए स्वर में कहा,

“आपको ऐसे बच्चे के साथ इसके भाई/बहन के बारे में भी सोचना चाहिए।”

‘ऐसे बच्चे के साथ’ से क्या मतलब है आपका? क्या हुआ है मेरी बेटी को?” मैं लगभग चीखते हुए बिस्तर से उठी और काँपते हुए पास पड़े हुए सोफ़े पर गिर पड़ी।

“जन्म के समय उसके ब्रेन को प्रॉपर ऑक्सीजन नहीं मिल पाई, जिससे उसके ब्रेन का एक पार्ट डेमेज हो गया है। मेडिकल टर्म्स में इसे CP यानि ‘सेलेब्रल पैल्सी’ कहते हैं।”

“हो सकता है आपकी बेटी ज़िन्दगी में कभी चल और बैठ भी ना पाए, बोलना और समझना तो बहुत दूर की बात है।”

डॉक्टर बोले जा रही थी और मैं चेहरे पर बिना कोई भाव लिए उन्हें सुने जा रही थी। शब्द सिर्फ़ उनके मुँह से मेरे कान तक जा रहे थे, समझा तो मैंने उन्हें कुछ देर बाद था। जिसके साथ ही एक रुलाई भी मेरे अन्दर से फ़ूट पड़ी थी। बहुत कुछ था, जो एकसाथ मेरे अन्दर टूट गया था; मेरे सपने, मेरी आकांक्षाएँ और भी ना जाने कितना कुछ। बहुत देर तक मैं उस सोफ़े पर ऐसे ही बैठी रही।

अचानक ही मेरे अन्दर से ही आवाज़ आई,

“नहीं, मैं इस तरह हार नहीं मान सकती। अगर उस ईश्वर ने मेरी परीक्षा ही लेनी चाही है, तो मैं इस परीक्षा में भी सफ़ल होकर दिखा दूँगी। मैं इस तरह खुद को टूटने तो हरगिज़ नहीं दूँगी।”

कुछ देर बाद जब मेरे पति कमरे में आए, तो मुझे इस तरह सोफ़े पे बैठा देख कर शायद ये समझ गए कि मुझे सब पता चल चुका है, पर उन्होंने कुछ कहा नहीं; चुपचाप मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर मेरे पास ही बैठ गए, मैंने उनके कन्धे पर अपना सिर टिका दिया। फ़िर धीरे से पूछा,

“आपने मुझे बताया क्यों नहीं? खुद ही सारा दर्द चुपचाप सहते रहे। यहाँ तक कि अपने चेहरे से भी कुछ जाहिर नहीं होने दिया।”

“क्या कहता मैं और फ़िर जो हो गया, उसे बदला तो नहीं जा सकता ना? उस पर तुम्हारी हालत ऐसी नहीं थी कि तुम्हें कुछ बताया जाता। अब हम दोनों को साथ मिल कर ही इसकी ज़िन्दगी सँवारनी है।” मेरे पति बहुत ही शांत-भाव से मुझे समझा रहे थे। मैं उनके इसी गुण की तो कायल थी।

फ़िर उन्होंने मुझे सहारा देकर बिस्तर पर लिटा दिया और मेरे लिए गिलास में जूस निकालने लगे।


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                                                                                                                 .....क्रमश:


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खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-२



शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

वो सुबह जरूर आएगी..!






कुछ दिन पहले मैं अपनी बेटी के स्कूल पैरेन्ट्स-टीचर्स मीटिंग में गई थी। वहाँ मेरी मुलाकात मान्या और शशांक से हुई। दोनों भाई-बहन थे। दोनों ने मिलते ही मेरा दिल चुरा लिया। अब आप सोच रहे होंगे, ऐसी क्या खास बात थी दोनों में? जब मैं ये कहूँगी बहुत प्यारी बौंडिंग थी दोनों में, बहुत ही प्यारी अंडरस्टैंडिंग थी उन दोनों में और वे दोनों एक-दूसरे के प्रति बहुत ही ज्यादा प्यार और अपनापन जता रहे थे। आप अब भी यही सोच रहे होंगे कि फ़िर भी ऐसी क्या खास बात हो गई? अक्सर भाई-बहनों का प्यार ऐसा ही होता है। खास बात वो है, जो अब मैं आपको बताने जा रही हूँ, शायद आप चौंके भी। भाई की उम्र १६ वर्ष थी और वो पूरी तरह दूसरों पर आश्रित था। वो एक `Mentally-Challenged Child’ था। बहन की उम्र यही कोई १० वर्ष थी, पर वो जिस तरह अपने भाई की देखभाल कर रही थी, तो कोई भी उसे उसकी माँ होने का धोखा खा सकता था। .. :))

अब मुद्दे की बात पर आते हैं। यहाँ मेरा मकसद आपको महज इन भाई-बहन के प्यार से परिचित कराना नहीं था, बल्कि उस रवैये की ओर आपका ध्यान खींचना था, जो समाज विकलांग / अपाहिज (बच्चों / व्यक्तियों) के प्रति दिखाता है। समाज के सभी लोग इस तरह के लोगों से एक दूरी बना कर रखना पसन्द करते हैं और अगर कभी करीब आते भी हैं, तो सिर्फ़ ‘सहानुभूति’ जताने हेतु। मैंने तो अक्सर लोगों को विकलांग / अपाहिज लोगों के प्रति बेचारगी प्रदर्शित करते ही देखा है और कभी-२ तो ये लोग इनके प्रति घृणा का प्रदर्शन करने से भी बाज नहीं आते। मैं यहाँ पर ‘बर्फ़ी' फ़िल्म के एक दृश्य का जिक्र करने से खुद को रोक नहीं पा रही हूँ, जब प्रियंका चोपड़ा के घर पर पार्टी चल रही होती है। प्रियंका चोपड़ा ने इस फ़िल्म में ‘ऑटिज़्म’ पीड़ित लड़की का किरदार निभाया था। फ़िल्म के दृश्य में वो लड़की वहाँ गाये जा रहे एक गाने को पसन्द आने पर खुद भी जोर-२ से उसे गाने लगती है; जिसे सुनकर वहाँ उपस्थित बाकी लोग जोर-२ से हँसने लगते हैं। ये देख कर लड़की के माता-पिता शर्मिन्दा हो जाते हैं और वहीं दूसरी तरफ़ वो लड़की जार-२ रोती हुई, यही कहती रह जाती है कि “हँसो मत- हँसो मत”...। बाद में उस लड़की को उसके नाना के घर भेज दिया जाता है।





मेरे मन में अक्सर ये ख़्याल आता है कि जब हमें सामर्थ्यवान होते हुये प्यार और अटेंशन की इतनी आवश्यकता होती है, तो उन्हें कितनी होती होगी; जबकि वो हम पर कई तरह से आश्रित भी होते हैं। आज जब मैंने उन भाई-बहन को देखा, तो यही बात बार-२ दिमाग में घूमती रही कि क्यों ना हम समाज को उनके प्यार की तरह ही खूबसूरत बना दें। जहाँ किसी भी भेदभाव से परे सिर्फ़ प्यार ही प्यार बिखरा दिखाई दे। मैं तो उन माता-पिता की भी प्रशंसा करना चाहूँगी, जिन्होंने अपनी बच्ची को अपने भाई के साथ इतने प्यार से पेश आना सिखाया। शशांक बोल नहीं पाता, पर फ़िर भी वो सबको बार-२ अपनी टूटी-फ़ूटी भाषा में यही कह रहा था कि “ये मेरी बहन है मान्या। ये मुझे बहुत प्यार करती है।”

मैं उन दोनों की फ़ोटो भी खींच कर लाई, जो ऊपर मैंने लगाई है। अपने भाई के साथ जाते हुये मान्या मुझे ‘बाय-बाय’ कर रही थी और मैं सिर्फ़ यही सोच रही थी कि क्या चाहते हैं ये लोग हमसे, सिर्फ़ यही ना कि.....

“चार कदम बस चार कदम, चल दो ना संग तुम मेरे”.....


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