खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-१
खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-२
परन्तु मेरी खुशी अब भी अधूरी थी। लाख कोशिशों के बाद भी कुहू के मुँह से एक भी बोल नहीं फ़ूटा। हाँ, अस्फ़ुट स्वरों में पूरे दिन कुछ अजीब तरह की आवाजें जरूर निकालती रहती थी। मुझे लगा कि बिना कुछ बोले तो इसके लिए कोई भी राह आसान नहीं होगी; पर एक आशा की किरण अब भी बाकी थी, वो था म्यूजिक के प्रति इसका प्रेम। वैसे तो इसे सभी तरह के वाद्य-यन्त्रों से प्यार था, पर सबसे प्रिय था सिंथेसाइजर। कभी रोते हुए भी इसके सामने सिंथेसाइजर रख दो, तो मैडम जी रोना भूल कर अपनी उँगलियाँ उस पर नचाने लगती थीं। बचपन से अब तक दो सिंथेसाइजर खराब कर चुकी थीं ये।
मैंने घर पर ही इसके लिए सिंथेसाइजर सिखाने के लिए एक टीचर का इन्तजाम किया। पर एक-दो महीने बाद ही वो हार मान गए। कुहू को सिखाना इतना आसान काम नहीं था, क्योंकि वो बहुत ही मुश्किल से किसी बात को समझती थी। एक टीचर हार सकता था, पर एक माँ कभी नहीं। वैसे भी कुहू को सिखाना उनके बनिस्बत मेरे लिए आसान काम था; क्योंकि इतने सालों में मैं उसे बहुत अच्छी तरह समझने लगी थी। मैंने अपनी कुहू से वादा किया,
“तू चिन्ता मत कर। मैं सिन्थेसाइजर को तेरे लिए खुशी का वो साज़ बना दूँगी, जिस पर तू एक दिन अपनी ज़िन्दगी के तराने गुनगुनाएगी।”
इसके बाद जो टीचर मैंने कुहू के लिए लगाया था, उनसे मैं खुद घर पर ही सिंथेसाइजर सीखने लगी। फ़िर नए-२ तरीके ईज़ाद कर कुहू को सिखाना शुरू किया। अब धीरे-२ कुहू की-बोर्ड समझने लगी थी और उम्र बढ़ने के साथ-२ जैसे-२ उसकी समझ बढ़ी, मेरे लिए उसे सिखाना आसान होता गया। एक दिन तो उसने मुझे टोक दिया और इशारे से समझाया कि मैं गलत सुर पर हूँ। मैं खुशी से खिल उठी, ये सोच कर कि आखिर मेरी मेहनत बेकार नहीं गई। अब तो की-बोर्ड पर उसकी उँगलियाँ थिरकती थीं।
एक दिन अखबार में एक संगीत-संध्या प्रोग्राम का एड देख कर मेरी आँखें चमक उठी। प्रोग्राम नेशनल लेवल का था। प्रत्येक बच्चे को किसी भी वाद्य-यंत्र पर १५ मिनट तक परफ़ॉर्म करना था। मैंने फ़ॉर्म लाकर कुहू का नाम भी रजिस्टर करवा दिया।
प्रतियोगिता वाले दिन जब हम कार्यक्रम-स्थल पर पहुँचे, तो शुरू में कुहू भीड़ देख कर घबराने लगी। पर धीरे-२ हमने उसे संयत किया। हालाँकि इस कार्यक्रम में उसे दूसरा स्थान मिला, पर उसके नाम को एक पहचान मिल गई थी।
अब तो कई स्टेज शो के लिए उसे ऑफ़र भी आने लगे। एक संस्था ने तो उसे स्कॉलरशिप भी देनी शुरू कर दी। अब धीरे-२ उसका आत्मविश्वास तो बढ़ ही रहा था, साथ ही ज़िन्दगी के प्रति उसकी ललक भी देखते ही बनती थी।
धीरे-२ उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ने के साथ-२ कुहू सफ़लता के नए-२ सोपान भी पार करती चली गई। मेरे घर के शो-केस अब उसके अवार्डों से भरने लगे। एक शहर से दूसरे शहर फ़ैलते-२ उसकी ख्याति इस देश की सीमाओं को भी पार कर गई। अब अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कुहू के नाम को पहचान मिल गई थी। अब उसके नाम से स्टेज शो ऑर्गनाइज होने लगे थे। हम भी उसके साथ-२ एक देश से दूसरे देश के सफ़र पर निकल पड़े थे।
एक दिन अचानक टी.वी. देखते हुए मेरी खुशी का ठिकाना ना रहा, जब घोषणा हुई कि कुहू को ग्रेमी अवार्ड देने का निर्णय किया गया है। उसने अपने और हमारे साथ-२ इस देश का नाम भी रौशन कर दिया था। वो तो शायद ही ज़िन्दगी में कभी ये जान पाए कि उसने क्या पा लिया है; पर उसने अपनी माँ को ये एहसास जरूर करा दिया था कि उसने अपनी बेटी के लिए जो सपना देखा था, वो गलत नहीं था। शाम को राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा अन्य गणमान्य लोगों के बधाई सन्देश भी प्राप्त हुए। मुझे ये सारा कुछ किसी स्वर्ग जैसी फ़ीलिंग दे रहा था।
आज तो उन लोगों के भी फ़ोन आ रहे थे, जो मेरी बेटी को मेरी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा ग्रहण मानते थे और सोचते थे कि मैं इसके अन्धकार में ही एक दिन घुट-२ कर मर जाऊँगी। पर मेरी बेटी ने तो अपनी आभा से उनकी आँखें चौंधिया दीं।
अचानक रेड लाइट पर गाड़ी में लगे ब्रेक से मेरी तंद्रा टूटी और मैं एक झटके में अपने अतीत से वापस आ गई। नज़र घुमाकर मैंने अपनी बेटी की ओर देखा, जो इस सब से बेखबर शहर में चारों ओर जगमग करती लाइटें देख कर खुश हो रही थी और मेरे कानों में खुशी के साज पर बजते मद्धम-२ सुर अठखेलियाँ कर रहे थे..........!!
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-समाप्त-
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