शनिवार, 1 दिसंबर 2012

इतना बेफ़िक्र भी मत हो ज़िन्दगी...!







किसी का जरा सा लालच और हम में से ही कुछ लोगों की ज़रा सी बेफ़िक्री कितनी बडी घटना और तबाही का वायस हो सकती है, यह अभी हाल की ही एक घटना से प्रकाश में आया है। एक प्राइवेट हास्पीटल की एक नर्स के लालच से एक हँसता-खेलता परिवार तबाह हो गया। वह नर्स हास्पीटल के ब्लड-बैंक में तैनात थी और पैसों के लालच मे जाँच-प्रक्रिया से अस्वीकृत हुये रक्त को भी मरीजों के लिए दे देती थी।

उसके इस लालच का शिकार हुआ एक परिवार; और कुछ ही दिनों में हँसता-खेलता परिवार मौत के मुँह में समा गया।

इस परिवार में पति-पत्नी, उनकी तीन पुत्रियाँ और एक पुत्र था। पत्नी की पहली गर्भावस्था के समय रक्त चढाया गया, जिससे उसमें एड्स के वायरस पहुँच गए। उसके द्वारा परिवार के सभी सदस्यों तक एड्स का दानव पहुँच गया, पर उनकी बेफ़िक्री की ज़िन्दगी ने उन्हें इसकी खबर नहीं होने दी।

ज़िन्दगी की भयानकता जब सामने आयी, तो पूरे परिवार को लील कर ही मानी। एक दिन अचानक पत्नी का चेहरा अजीब तरह के छालों से भर गया। हास्पीटल में जाँच से पता चला कि उसे एड्स है और अन्तिम स्टेज है; अगले ही दिन पुत्र के साथ भी यही घटना हुई और जाँच के बाद सभी को एड्स होने की पुष्टि हुई और कुछ ही दिन बाद पत्नी और पुत्र की मौत हो गई, क्योंकि वे अन्तिम स्टेज पर थे।

पिता और तीनों पुत्रियों ने इस गम से उबरकर अपना इलाज़ प्रारम्भ किया और ज़िन्दगी से दो-२ हाथ करने की ठान ली। हौसले की प्रतिमूर्ति था पूरा परिवार। परन्तु समाज को उनकी ये ज़िन्दादिली रास नहीं आई और वही हुआ जो एक “So called Society’’ से अपेक्षा की जा सकती है।

तीनों बच्चियों को स्कूल से निकाल दिया गया, क्योंकि साथियों ने साथ बैठने से और गुरुओं ने ग्यान देने से इन्कार कर दिया था। रिश्तेदारों ने भी साथ छोड़ दिया (जो कि ऐसे वक़्त पर हमेशा ही अकेला छोड़ देते हैं)। हद तो तब हो गई, जब बड़ी बेटी के प्रेमी ने भी (जिसके लिए कभी वो परी समान हुआ करती थी) उसे ठुकरा दिया। जब प्यार से थामने वाला हाथ दगा कर जाये, तो इन्सान के सारे हौसले पस्त हो जाते हैं और यही हुआ उस लड़की के साथ।

वो शायद जानती थी कि उसके बाद उसकी बहनें इस समाज के भेड़ियों का सामना नहीं कर पाएँगी, पापा शायद कर लें। उसने अपनी बहनों को दवा की जगह ज़हर देकर खुद भी मौत को गले लगा लिया; शायद सुकून से मरने के लिये, जीना तो उनकी किस्मत में था ही नहीं शायद।

स्तब्ध हैं ना.....?? देखकर कि किस तरह ये समाज हौसलों को तोड़ने की क्षमता रखता है। सँवारना कब सीखेंगे हम? शायद कभी नहीं। तो क्या कहते हैं आप? हम सब मिल कर एक कदम बढ़ाएँ आज से ही...................???


एक विशेष बात:-  कृपया हर तीन साल पर अपने परिवार की एक बार एड्स जाँच जरूर करवाएँ। बेफ़िक्री अच्छी है, पर जिम्मेदारी के साथ। आभार...!

                     x  x  x  x 

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

श्रद्धांजलि एक महान पुरुष को...!






आज मैं उस विषय पर संक्षेप में लिखने जा रही हूँ, जो अक्सर ही मेरे मर्म को भेदता है... मैंने ये महसूस किया है कि लोगों के बीच में गाँधी की बस इतनी सी पहचान है कि उन्होंने भगत सिंह को मरवा दिया, अंग्रेज सरकार से उन्हें बचाने के लिए भीख नहीं मांगी...

इस विषय में मैं इतना ही कहूँगी कि गाँधी को समझना इतना भी आसान नहीं, विरोध में तो बहुत कुछ लिखा जा सकता है...

जहाँ तक भगत सिंह को बचाने की बात है, तो भगत सिंह मरे नहीं थे, शहीद हुए थे और शहीद स्वयं देशहित में अपने प्राण त्यागते हैं, जो कि भगत सिंह ने भी किया... एक शहीद को बचाने की बात करना उनका अपमान करना हुआ...गाँधी जी और भगत सिंह आपस में कितना प्रेम करते थे, ये लोगों की समझ से परे का विषय हो सकता है...

आगे भी मैं गाँधी जी से जुड़े हुए कुछ पहलू और उनसे जुडी हुयी भ्रांतियों से आपको परिचित कराती रहूंगी, जो अक्सर मेरे मन को व्यथित करते रहते हैं...

ये मेरी श्रद्धांजलि होगी उनके लिए...

                                            x  x  x  x

सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

पाषाण हृदय.....!


 मुझे उनकी काया पाषाण की तरह लगती थी हमेशा। क्‍योंकि उस काया में सोच के ही बवंडर उठते थे, वो सोच जिसका रास्‍ता सिर्फ मस्‍तिष्‍क से होकर जाता था। उस रास्‍ते पर दूर-2 तक कोई पगडंडी नहीं दिखाई देती थी, जो दिल को छू कर भी गुजरती हो। जिन्‍दगी के हर फलसफे को तराजू में तौल कर देखते थे। प्‍लस-माइनस में ही फिट होते थे, उनके गणित के हर फार्मूले। कभी-2 लगता है कि क्‍या पाषाण इतना कठोर होता है कि जिस घटना का आवेग करोड़ों लोगों के आँसुओं का समन्‍दर बना कर बहा दे, वह उस व्‍यक्‍ति को तिल भर भी डिगा ना पाई। क्‍या जिन्‍दगी सिर्फ लाभ-हानि का खेल भर है? क्‍या आपको नहीं लगता कि कभी-2 हमें माइनस वाले पलड़े पर बैठ कर भी जिन्‍दगी का नये सिरे से विश्‍लेषण करना चाहिये।

दो बेटे थे उनके।

आज सुबह ही उनके बड़े बेटे का फोन आया था। खुशखबरी सुना रहा था, पर कुछ दर्द के साथ। बेटी हुयी थी उसकी, पर दर्द की वजह बेटी नहीं थी। उसे रह-2 कर याद आ रही थीं डॉक्‍टर की कही बातें।

‘‘ मस्‍तिष्‍क में पानी भर गया है, ऑपरेशन करना पड़ेगा, बचने की संभावना काफी कम है। अगर बच भी गयी, तो मानसिक रुप से विकलांग हो सकती है आपकी बेटी।‘'

अचानक पिता की आवाज से बेटे की तंद्रा टूटी। डॉक्‍टर के कहे अन्‍तिम वाक्‍य को उसने ज्‍यों का त्‍यों दोहरा दिया।

‘‘ हमें आपकी राय की जरुरत है, तभी हम कोई निर्णय ले सकते हैं।''

‘‘ दिमाग तो नहीं खराब हो गया है तुम्‍हारा? जिन्‍दगी भर एक अपाहिज को सीने से लगा कर रखोगे? ''

‘‘ और फिर डॉक्‍टर ने क्‍या कहा कि मरने की सम्‍भावना ज्‍यादा है, तो क्‍यों बेवजह ऑपरेशन में लाखों रुपये बरबाद कर रहे हो? वैसे भी इस महंगाई में घर का खर्च चलाना मुश्‍किल पड़ता है। और मुझसे तो कोई उम्‍मीद भी मत रखना तुम।''

चेहरा सफेद पड़ गया प्रशान्‍त का अपने पिता की बात सुनकर। शायद आखिरी आशा भी खत्‍म हो गई थी उसकी, दिल बैठ गया उसका। बेमन से डॉक्‍टर को मना कर दिया उसने, अनमने भाव से उस फूल सी गुड़िया को घर ले आया।

सुबह से शाम हो गई, पर वो उसके झूले के पास से नहीं हटा। पूरा कमरा खिलौनों से भरा हुआ था। कितने नाजों से सजाया था उसने ये कमरा, अपनी आने वाली सन्‍तान के लिए। और वो तो एक बेटी ही चाहता था।

एकटक देखे जा रहा था उसके चेहरे को वो। अचानक उसने देखा, उस फूल सी नाजुक बच्‍ची का चेहरा एक ओर लुढ़क गया है। चली गयी थी वह परी इस दुनिया से, एक पाषाण हृदय की कठोरता का शिकार होकर।

अपने पिता को तो वो माफ नहीं ही कर पाया, साथ ही साथ खुद भी टूटता रहा वो अन्‍दर ही अन्‍दर। शायद कहीं भीतर अपने आप को भी दोषी मान रहा था वह। कुछ ही दिनों में हड्‌डी का ढाँचा हो गया था, शरीर एकदम पीला पड़ गया था।

आज पता नहीं क्‍यों सुबह से वह अपनी बेटी के कमरे में था। दीवार का सहारा लेकर एकटक उस झूले को ताके जा रहा था, जिसमें उसकी बेटी ने अपनी ज़िन्‍दगी के कुछ क्षण बिताये थे। झूले को ताकते-2 कब उसकी आत्‍मा अपनी बेटी से मिलने के लिए प्रस्‍थान कर गई, खुद उसे भी उसका अहसास नहीं हुआ।

उसके मृत शरीर को उसके पिता अपने साथ ले गये, अन्‍तिम क्रिया-कर्म के लिये। उनके छोटे बेटे को तो अब तक इस स्‍थिति का भान ही नहीं था, होता भी कैसे; वो तो एक जरुरी मीटिंग के लिए बाहर गया था।

अचानक कुछ शब्‍द गूँजे,

‘‘ जल्‍दी कीजिए, ‘बॉडी' को ले जाने का इन्‍तजाम कीजिए। अभी थोड़ी देर में सूरज सिर पर चढ़ आएगा और मुझसे धूप में चला नहीं जाता।''

ये शब्‍द थे उसके पिता के, जो उन्‍होंने अपने घर के सामने इकट्‌‌ठा लोगों से कहे थे।

‘‘ लेकिन आपका छोटा बेटा, वो तो अभी तक आया नहीं, उसका इन्‍तजार नहीं करेंगे आप? '' - पीछे से किसी की आवाज आई।

‘‘ नहीं, बेवजह उसका नुकसान क्‍यों करवाउँ। ''

‘‘ वैसे भी, कौन सा, उसके आने से जाने वाला लौट आयेगा। ''

माहौल में निस्‍तब्‍धता छायी है, लोग उनके चेहरे को देख रहे हैं।

नेपथ्‍य से कुछ लोगों के रोने की आवाजें आ रही हैं...............................

                                         x   x   x   x  

सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

आस की डोर...




एक बार एक कहानी पढी थी, जो आज तक मेरे ज़ेहन से नहीं निकली है और जब-तब मेरे मस्तिष्क को झकझोरती रहती है... एक सवाल बार-२ उठता है मेरे मन में, क्या प्यार सिर्फ साथ-२ हंसने-खेलने का नाम है ?  शायद नहीं................
जब तक एक की आँख का आंसू दूसरे की आँख से ना निकले, तब तक प्यार की इब्तिदा नहीं होती...

 

साथ-२ जीने-मरने की कसमें खायी थी दोनों ने और विश्वास भी था एक-दूसरे पर, शायद एक-दूसरे से ज्यादा... १७ मई को शादी थी उनकी...
 

"आत्म का आत्म से मिलन, विश्वास की छाँव तले...!"

परन्तु ये विश्वास की दीवार उस दिन भरभराकर कर गिर गई, जिस दिन उन्हें पता चला की लड़की को Bone TV है... शायद अंतिम स्टेज थी..........


लड़की की आँखों के सामने से सारे रंग अचानक ही गायब हो गए, जब उसने लड़के को खुद से दूर जाते देखा... शायद कभी वापस ना लौटने के लिए...............!!

लड़की को हॉस्पिटल में एडमिट करा दिया गया... वो मौत की तरफ एक-२ कदम बढाने लगी... जिन्दगी का हाथ छूटता ही जा रहा था, कितना ही कसकर पकड़ने की कोशिश की उसने, फिर भी... आखिर ज़िन्दगी थी ना..........!!

सिस्टर, एक कैलेण्डर मिलेगा ?  उसने पूँछा..........

एक आस थी, जो छूटने का नाम ही नहीं ले रही थी...............वो आएगा, जरूर आएगा...............!!

एक-२ दिन काटने लगी, कैलेण्डर पर... बहुत जल्दी थी उसे शायद, दिन नहीं कट रहे थे...उसे इंतजार था १७ मई का... आखिर उस एक पल के लिए ही तो जी रही थी वो... वो पल, जब कायनात की सारी खुशियाँ उसकी झोली में आने वाली थीं...उसके विवाह का दिन.................!!

 

दिन बीतते रहे इसी तरह...................

 

पर वो नहीं आया.....................!!

 

आज सुबह से ही उसकी आँखें दरवाजे पर टिकी हैं....................

 

आज १७ मई है...................!!

 

ज़िन्दगी की डोर भी हाथ से छूट गई, उस आस की तरह, सांझ ढलते ही.....
 

मौत को भी आज का ही दिन मुक़र्रर करना था उसके लिए....................!!

                                        

                                                x   x   x   x  

सोमवार, 27 अगस्त 2012

नन्हे-मुन्हे बच्चे तेरी मुठ्ठी में क्या है ?



अभी कुछ दिनों से एक अलग तरह की बयार फिजां में तैर रही है कि बच्चों को किस तरह संस्कार दिए जाएँ तथा कैसे उनमें अपने माता-पिता के प्रति प्यार एवं आदर उत्पन्न किया जाये...

इसकी एक बानगी फिल्म 'फेरारी की सवारी' में भी देखने को मिलती है... ऐसा नहीं है कि ये समस्या अभी हाल में ही उत्पन्न हुयी है, बल्कि ये काफी समय से हमारे समाज का हिस्सा बनी हुयी है...

फिल्म में जिस तरह सरमन जोशी अपने बेटे को संस्कारों से परिचित कराता है, वो एक मिसाल की तरह प्रतीत होते हैं और ये सिद्ध करते हैं कि संस्कारों को बच्चों के सामने कथनी की तरह नहीं, बल्कि करनी की तरह पेश करना चाहिए... एक और बात जो मन को अत्यधिक भावुक कर देती है, वो है नायक का अपनी हर समस्या को हँसते-२ सुलझाना और जिंदगी के मजे लेना...

आज जब हम Traffic Rules तोड़ने के बाद ये देखते हैं कि कहीं आसपास Traffic Police तो नहीं और ना होने पर चैन की साँस लेते हैं या होने पर कुछ पैसे दे कर केस रफा-दफा करवाना चाहते हैं... वहीँ फिल्म का नायक अपने बेटे के स्कूल की बातें सुनते-२ अनजाने में signal तोड़ने पर Traffic Police को ढूंढता है और वहां उसे ना पाकर अगले Traffic Signal पर जाकर चालान काटने को कहता है... जब Police वाला कहता है कि आपको किसी ने देखा तो था नहीं, आपको चले जाना चाहिए था; हम ऐसे चालान नहीं काटते... इस पर नायक अपने बेटे की तरफ इशारा करके कहता है कि मेरा बेटा देख रहा था... जब तक ये मुझे नियमों का पालन करते हुए देखेगा नहीं, तो खुद क्या सीखेगा... इस बात पर उसके बेटे की मुस्कुराहट एक सार्थक दृष्टिकोण की पुष्टि करती है...

एक और बात जो मुझे अत्यंत प्रेरणास्पद प्रतीत होती है, वो ये कि बच्चे के दादाजी का अत्यंत रूखेपन से पेश आने तथा बात-२ पर चिल्लाने के बावजूद नायक का अपने बेटे को समझाना कि अपने बड़ों से आदर से बात करते हैं तथा उनकी बात का बुरा नहीं मानते; ये वक्तव्य वर्तमान समय में बुजुर्गों के प्रति असहनशीलता की समस्या को उजागर करते हुए उसके समाधान को इंगित करता है...

इसके साथ ही नायक का अपनी कठिनाइयों के बावजूद अपने बच्चे की जरूरतों का ध्यान रखना तथा उन्हें पूरा करने की हर संभव कोशिश करना, उस बच्चे में भी जिम्मेदारी की भावना जाग्रत करता है; साथ ही हमें भी कुछ सिखा जाता है... वैसे एक बात तो समझ में आती है इस फिल्म को देखने के बाद कि बच्चों को सही ढंग से पलना 'बच्चों का खेल' नहीं होता...

वैसे मैं सभी माता-पिता से यही प्रार्थना करना चाहूंगी कि वो अपने बच्चों को समझने की कोशिश करें और ये एहसास करने की कोशिश करें कि 'बच्चे इतने भी बच्चे नहीं होते'...

                                              x   x   x   x  

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

नारी स्वातंत्र्य के असली मायने...



आपने अक्सर लोगों को नारी स्वतंत्रता के विषय में बात करते सुना होगा और शायद लोगों की नज़र में काफी हद तक नारी स्वतन्त्र हो भी चुकी है, पर क्या ये स्वतंत्रता सही मायने में नारी-स्वातंत्र्य है... क्या वेशभूषा, भाषा में क्रांतिकारी बदलाव, घूमना-फिरना, मनमानी आज़ादी यही नारी स्वतंत्रता है? क्या हासिल हुआ इस स्वतंत्रता से समाज को और नारी को भी.....??

सही मायनों में कहें तो इस आज़ादी से समाज दरकने लगा है, मूल्यों में गिरावट आई है... आज बच्चे माओं से दूर हो रहे हैं, जिससे उनमें अपसंस्कृति का विकास हो रहा है, समाज से अलग उनकी एक नयी ही दुनिया बन गयी है... एक समय में कहा जाता था कि नारी जगत-जननी है, जो आज मिथ्या साबित हो रहा है...

असल में देखा जाये तो आज भी नारी उतनी ही बंधन में है, जितनी पहले थी ( मुश्किल से १०% बदलाव आया होगा )... मैं यहाँ मानसिक सोच में स्वतंत्रता की बात कर रही हूँ... कितनी लड़कियां हैं, जो दहेज़ के खिलाफ आवाज़ उठाती हैं...? कितनी नारियां हैं, जो
अपने गर्भ में पल रहे मादा-भ्रूण की हत्या रोक पाती हैं...? कौन घरेलू-हिंसा के खिलाफ बोलता है...? कौन-सी नौकरी करने वाली लड़की अपने पति से पूछे बिना अपने वेतन में से कुछ रूपये अपने माता-पिता को देती है...? बहु बन कर सास-ससुर की सेवा तो करती हैं, पर क्या भाई ना होने पर अपने माता-पिता को घर ला कर उनकी जिम्मेदारी उठा सकती हैं...? क्या अपने परिवार से लड़ कर उतनी ही सुख-सुविधा अपनी बेटी को दे सकती हैं, जो उनके बेटे को मिलती है और सबसे बड़ी बात क्या वो पढाई करने, नौकरी करने, विवाह करने जैसे निर्णय स्वयं ले सकती है...? नहीं ना...?
फिर किस मायने में आप कह सकते हैं कि आज नारी स्वतन्त्र है...?

नारी के स्तर में सुधार की बात तो बाद में करेंगे, शुरुआत कन्याओं से कीजिये, जिन्हें आप देवी का अवतार कहते हैं... सबसे पहले तो उन्हें जन्म लेने और जीने का अधिकार दीजिये... उनका सही लालन-पालन कीजिये और उन्हें स्वतन्त्र निर्णय लेने के योग्य बनाईये... समाज में अपने बूते खड़े होने और समाज को सही दिशा देने का माद्दा उनमें पैदा कीजिये... नर और नारी किसी मायने में भिन्न नहीं, बस एक ही सिक्के के दो पहलू हैं... बस हमें अपना नजरिया भर बदलने की देर है, नजारा अपने-आप बदल जायेगा.....

                                            x  x  x  x 

सोमवार, 30 जुलाई 2012

तुझको चलना होगा...!



विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रत्येक ५ मिनट पर एक व्यक्ति आत्महत्या करता है... जहाँ पहले आत्महत्या का कारण मानसिक अवसाद एवं मानसिक बीमारियाँ हुआ करती थीं, वहीँ अब छोटी-२ बातों को लेकर लोग आत्महत्या करने लगे हैं... लोगों की सहनशक्ति धीरे-२ कम होती जा रही है...

आजकल जिस तरह समाज में मानसिक अवसाद की समस्या बढती जा रही है, उसे देखकर स्वामी विवेकानंद जी के बचपन की एक कहानी मुझे बरबस याद आ जाती है... लीजिये जरा आप भी इस कहानी पर एक दृष्टि डाल लीजिये; शायद आपको भी सुकून-ए-एहसास की कुछ बूंदे मयस्सर हो जाएँ.....


एक बार की बात है, नरेन्द्र (स्वामी विवेकानंद के बचपन का नाम) कहीं जा रहे थे... अचानक से उनके पीछे एक कुत्ता पड़ गया... नरेन्द्र ने डर के मारे भागना शुरू कर दिया... कुत्ता भी उन्हें भागता देख उनके पीछे हो लिया... वो डर कर और तेज भागने लगे, कुत्ते ने भी अपनी speed बढ़ा दी... न तो नरेन्द्र ही हार मानने को तैयार थे ना ही कुत्ता... अचानक ही नरेन्द्र को किसी ने कंधे से पकड़कर रोक लिया... उन्होंने मुड़कर देखा, सामने माँ खड़ी थीं...

" छोड़ो माँ, वरना कुत्ता मुझे काट लेगा ", नरेन्द्र ने डरते हुए कहा...

" नहीं काटेगा, ज़रा मुड कर देख ", माँ ने जवाब दिया...

नरेन्द्र ने मुड़कर देखा, कुत्ता अपनी जगह चुपचाप खड़ा था...

अब तू इसकी आँखों में ऑंखें डाल कर देख, जैसे कि तुझे इससे डर नहीं लगता और अब उल्टा इसको भगा...

कुत्ते ने जैसे ही नरेन्द्र को अपनी तरफ आते हुए देखा, वो डर कर उल्टी दिशा में भागने लगा...

अब आगे-२ कुत्ता, पीछे-२ नरेन्द्र... फिर नरेन्द्र की माँ ने समझाया कि जब तक हम किसी चीज से डरकर भागते रहते हैं, वो चीज हमें डराती रहती है... डटकर उसका सामना करो, ताकि वो खुद डरकर भाग जाये...

इस कहानी से मिली शिक्षा को हम अपने जीवन में भी लागू कर सकते हैं... हममें से अधिकांश लोग जिन्दगी की अनगिनत समस्यायों से घबरा कर या तो मानसिक अवसाद से घिर जाते हैं या आत्महत्या जैसा घिनौना मार्ग अपना लेते हैं, जबकि आत्महत्या एक अस्थायी समस्या का स्थायी समाधान भर है... अगर हम शांतिपूर्वक बैठ कर सोचें तो हर समस्या अपने- आप में ही कई समाधान छुपाये होती है, बस उन्हें ढूँढने भर की देर होती...

जब तक हम समस्यायों से डरकर भागते रहेंगे, हम उनसे कभी मुक्त नहीं हो पाएंगे... जरूरत ये है कि हम उन समस्यायों के आगे लोहे की दीवार बन कर खड़े हो जाएँ, ताकि वो हमसे टकराकर खुद ढेर हो जाएँ... एक और बात किसी व्यक्ति को इतनी अहमियत ना दें कि उसका आपकी जिन्दगी में होना या ना होना, आपके मानसिक अवसाद का कारण बन जाये... ये बात मैं इसलिए कह रही हूँ क्योंकि भारत में आत्महत्या का सबसे प्रमुख कारण प्रेम में असफलता है... एक प्रसिद्ध उक्ति है :-
 

" No One can make You Happy except YOU ".....

विशेष :-  जब भी आपको बेवजह की उदासी या निराशा घेरने लगे, तो सचेत हो जाएँ कि मानसिक अवसाद आप पर हावी हो रहा है... यही सही वक़्त है कि आप निराशा को परे धकेल कर सकारात्मक सोच की ओर कदम बढ़ाएं... जिसके लिए आप निम्न वाक्यों को बार-२ अपने मन में दोहराएँ, जो वायस बनेंगे आपको निराशा के अंधकार से उबारकर एक उद्देश्यपूर्ण जिन्दगी जीने की ओर प्रेरित करने में.....

 " मैं जैसा हूँ, सबसे अच्छा हूँ... मेरी हर समस्या के कई समाधान हैं, बस मैं उन्हें खोज नहीं पा रहा हूँ... लोग, समय और स्थितियां सब में बदलाव होता है...। " 

                                   

                                                  X  X  X  X  X

सोमवार, 16 जुलाई 2012

देखती है दुनिया...



कभी एक सड़क के किनारे एक भिखारी बैठा करता था... वो हमेशा भीख में १ रु. का सिक्का ही लेता था, कोई ज्यादा देना भी चाहे, तो मना कर देता था... एक दिन एक व्यक्ति उसकी परीक्षा लेने के उद्देश्य से उसके पास गया और उसे १०००/- का नोट निकाल कर देने लगा...उस भिखारी ने इंकार की मुद्रा में सिर हिलाते हुए व्यक्ति की तरफ मुस्कुरा कर देखा...
 

व्यक्ति ने हैरत से पूँछा, "क्यों नहीं ?"...
 

भिखारी ने उसी तरह मुस्कराहट को होंठों पर सजाये रखा और धीरे से जवाब दिया,
 

"बाबूजी, आप भी मुझे १०००/- का नोट इसलिए दे रहे हैं, क्योंकि आपको पता है कि मैं लूँगा नहीं... आप जैसे कई आते हैं मेरी परीक्षा लेने के लिए... कई तो रोज इसी चाहत में आते हैं कि किसी दिन तो मेरा ईमान डिगेगा और १/- का सिक्का देकर चले जाते हैं... अगर मैं यहाँ सिर्फ भीख मांगने बैठा होता, तो कोई ५० पैसे का सिक्का भी नहीं देता, उलटे दुत्कार कर और चला जाता..."
 

" ये दुनिया एक भीड़ है, बाबूजी और जो भी इस भीड़ से अलग हटकर खड़े होने की हिम्मत दिखाता है, उसी को ये दुनिया देखती है और सिर माथे पर बैठाती है..."

शिक्षा:-  दुनिया लीक पर चलने वालों को भाव नहीं देती, इसलिए लीक से हट कर चलने कि हिम्मत दिखाइए... एक कहावत भी है,

                               " लीक-२ गाड़ी चलै, लीकहि चलै कपूत..
                                 ये तीनों उलटे चलें, शायर, सिंह, सपूत..."

                                                        x x x x

गुरुवार, 5 जुलाई 2012

आपके लिए...



                         बचपन से मेरी एक आदत रही है कि जहाँ कही भी मुझे ऐसी पंक्तियाँ या विचार दिखाई देते थे, जिनसे मुझे प्रेरणा मिलती थी, तो मै उन्हें अपनी डायरी में लिख लेती थी...इन विचारों ने मेरे व्यक्तित्व निर्माण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई... अचानक ख्याल आया कि इन विचारों को अपनी डायरी तक ही क्यों सीमित रखूँ ? अच्छी बातें तो खुशबू की तरह सारे संसार में फैलनी चाहिए... हो सकता है ये किसी टूटे दिल का सहारा बन सकें, किसी टूटी आस का संबल बन सकें... शुरुआत करती हूँ 'हरिवंश राय बच्चन' की इन दो पंक्तियों से कि,
                                             "आपके मन का हो तो अच्छा,
                                             अगर ना हो तो और भी अच्छा...! "
                         अब आप कहेंगे
कि ये क्या बात हुयी, तो मै बता दूँ कि इसका आशय ये है कि आपके मन का जो नहीं होता, वो ईश्वर के मन का होता है... ईश्वर से बेहतर हमारे लिए कौन सोच सकता है, आखिर हम उसी की संतान हैं... भला अपनी संतान का बुरा कौन चाहेगा ? ईश्वर द्वारा किये गए प्रत्येक कर्म का उद्देश्य श्रेष्ठ होता है... बस हमें ही समझने में थोडा वक्त लग जाता है... ईश्वर के प्रति आस्था को दर्शाती और दिल को छू लेने वाली ये ४ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं...
                                            " सहज किनारा मिल जायेगा
                                               परम सहारा मिल जायेगा..
                                              डोरी सौंप के तो देख इक बार
                                                उदासी मन काहे को करे....."

                                                                                 शुभकामनाओं सहित
                                                                                          गायत्री
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...