बुधवार, 9 जुलाई 2014

तेरे प्यार में...! (कहानी)






दोपहर होने को आई थी, पर आँसू थे कि थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे नीलेश के। वह सुबह से नीलू का हाथ थामे बैठा था, जो लगातार रोते हुए एक ही बात दोहराये जा रही थी,

“मैं जीना चाहती हूँ नील। मैं तुमसे दूर नहीं जाना चाहती। जबसे तुमसे मिली हूँ, पहली बार ज़िन्दगी में जीने की ललक जगी है।”

जीना तो नीलेश भी नहीं चाहता था उसके बिना। ज़िन्दगी भर जिस सच्चे प्यार की तलाश करता रहा, अब वो उसके सामने है; पर ज़िन्दगी को शायद ये मंजूर नहीं, वो उसकी प्यारी नीलू को उससे छीन लेना चाहती है।

पिछले ६ महीनों से नीलू लगातार डॉक्टर से मिलना टालती जा रही थी, जबकि उसकी तबियत दिनोंदिन बिगड़ती जा रही थी। जरा सा चलने पर ही थक जाती, बैठे-२ चक्कर आने लगते। ये देखकर जब नीलेश उसे डॉक्टर के पास चलने को कहता, तो वो हँसकर उसकी गोद में लेट जाती और नीलेश उसके बालों में उँगलियाँ फ़िराने लगता।

“पता है नील..........मैं बहाना करती हूँ तबियत खराब होने का। इससे तुम मुझे ज्यादा प्यार करते हो।”

ये सुनकर नीलेश उसे उठाकर अपने गले से लगा लेता और प्यार से पुचकार कर कहता, ‘पगली.....मैं तो तुझे इससे भी ज्यादा प्यार करना चाहता हूँ। सारे जहाँ की खुशियाँ तेरी झोली में डाल देना चाहता हूँ। पर मेरी एक शर्त है, तुझे आज ही डॉक्टर को दिखाना होगा और लगभग खींचते हुए वो उसे डॉक्टर के पास ले गया था।

डॉक्टर को उसका निश्तेज़ चेहरा और हालत देखकर ही शक हो गया था। उन्होंने कुछ टेस्ट भी करवाये थे, जिनकी रिपोर्ट आज ही आई थी। डॉक्टर का शक सही था, नीलू को ब्लड कैंसर था। डॉक्टर ने तुरन्त ही उसे हॉस्पीटल में भरती कर लिया था।

दोपहर के २ बजने को हैं, तभी डॉक्टर ने कमरे में प्रवेश किया। नर्स ने नीलेश को हटाते हुए कहा,

‘मि. नीलेश, जरा आप एक तरफ़ आ जाइये, डॉक्टर साहब, पेशेन्ट को देखना चाहते हैं।’

पर ये क्या? नीलेश का शरीर बेड पर एक ओर लुढ़क गया, नीलू का शरीर भी बेड पर निश्तेज़ पड़ा था। पर दोनों के हाथ अब भी एक-दूसरे को थामे हुए थे और आँखे एक-दूसरे के प्यार में डबडबाई हुई..........एक-दूसरे के बिना जीने की कल्पना से परे।

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बुधवार, 11 जून 2014

दुलारे भैया (संस्मरण): भाग-२






दुलारे भैया (संस्मरण): भाग-१ पढ़ने के लिए यहाँ जाइये.....।

एक विशेष बात जो उनके बारे में मैं बताना चाहूँगी, वो ये कि उनका सभी धर्मों में विश्वास था। उन्होंने गाड़ी में सभी धर्मों के आराध्यों के चित्र लगा रखे थे और रोज सुबह उठकर उनकी पूजा करते थे। एक ओर जहाँ ये माना जाता है कि मुसलमान जनसंख्या-नियंत्रण में विश्वास नहीं रखते, इस मामले में भी उनकी सोच सबसे आगे थी; उनके सिर्फ़ २ ही बच्चे थे। वे अपने दोनों बच्चों (एक बेटा, एक बेटी) को समान प्यार करते थे, बिना किसी भेदभाव के। अरे हाँ, मैं आपको एक स्वादिष्ट बात तो बताना ही भूल गई। दुलारे भैया को खाने का बहुत शौक था; साथ ही ये जानकारी भी कि किस ढाबे पर कौन सी चीज ज्यादा स्वादिष्ट मिलती है। उनकी इस जानकारी का हम लोग जमकर फ़ायदा उठाते थे।

आज जहाँ बड़े शहरों में लोग अपने पड़ौसी का नाम तक नहीं जानते, वहीं कस्बों और गाँवों में लोग दूसरों की मदद करने के लिए उनके द्वारा मदद माँगने का भी इंतजार नहीं करते। हमारे दुलारे भैया तो इस मामले में भी सबसे आगे थे, मोहल्ले में किसी की भी शादी हो, चाहे उनसे किसी ने कहा भी ना हो, मेरे भाई के साथ खुद भी पहुँच जाते थे मदद करने। वो अपने नाम के अनुरूप ही मोहल्ले के सभी घरों के दुलारे बन चुके थे।

दुलारे भैया की जो बात अब मैं आप लोगों को बताने जा रही हूँ, उसका कर्ज़ तो हम लोग ज़िन्दगी भर नहीं उतार पाएँगे और ना ही शायद कभी भुला पाएँगे। फ़रवरी २००६ की एक शाम मेरे पापा को हार्ट-अटैक पड़ा और इलाज की समुचित सुविधा ना होने के कारण डॉक्टर ने उन्हें १ घण्टे के अन्दर आगरा पहुँचाने को कहा, अन्यथा उनकी जान को खतरा हो सकता था। यह सुनकर हम लोगों के हाथ-पैर फ़ूल गए, क्योंकि आगरा हमारे यहाँ से १३५ किमी. दूर था और अपनी गाड़ी से भी वहाँ पहुँचने में तकरीबन ३ घण्टे तो लग ही जाते थे। पर दुलारे ने हिम्मत नहीं हारी, उसने ड्राइवर के बगल वाली सीट को नीचे करके पापा को उस पर लिटाया। इसके बाद उसने एक हाथ हॉर्न पे रख के १२० किमी. प्रति घण्टा की रफ़्तार से गाड़ी को भगाया और सवा घण्टे में पापा को आगरा पहुँचा दिया, जबकि सड़कों की इतनी खराब हालत को देखते हुए किसी के लिए भी ये नामुमकिन था। वहाँ पहुँचकर डॉक्टर ने भी यही कहा कि अगर आप १० मिनट भी लेट हो जाते तो इनका बचना बहुत मुश्किल था। रात में पापा का ऑपरेशन हुआ। ३ दिनों तक पापा की हालत नाजुक होने की वजह से वे अपने घर तक नहीं गए, जबकि आगरा शहर में ही उनकी ससुराल थी। उस समय उन्होंने वाकई एक बेटे का फ़र्ज़ निभाया और मेरे भाई के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहे।

अब और क्या कहूँ दुलारे भैया के बारे में; बस ये समझ लीजिए कि वो एक ऐसा अनमोल हीरा हैं, जो कुछ दिनों के लिए गलती से हमारे हाथ लग गया था। मैं तो बस इतना चाहती हूँ कि आप इस संस्मरण को पढ़ने के बाद मुस्लिम एवं अन्य धर्मों के व्यक्तियों के प्रति अपने नज़रिए में बदलाव लाएँ। धर्म तो खुदा की इबादत का एक नज़रिया भर है, इसे किसी भी व्यक्ति या समुदाय के प्रति अपने नफ़रत की वजह ना बनने दें।

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सोमवार, 19 मई 2014

दुलारे भैया (संस्मरण): भाग-१





इस संस्मरण को लिखने के पीछे मेरा मुख्य मकसद एक प्रश्न है, जो अक्सर मेरे दिलो-दिमाग को झिंझोड़ता है कि आखिर क्यों हम मुसलमान और आतंकवाद को साथ-२ जोड़कर चलते हैं, क्यों हमें हर मुस्लिम में एक आतंकवादी ही दिखाई देता है; क्यों हम एक मुसलमान में एक भाई, एक पिता, एक बेटा, एक दोस्त और सबसे बढ़कर एक इंसान नहीं देख पाते। क्या धर्म अलग होते ही इंसान और इंसानियत के मायने बदल जाते हैं? ईश्वर या खुदा जो भी कहें उसे, जब उसने इंसान बनाने में भेदभाव नहीं किया, तो हम कौन होते हैं ये अन्तर पैदा करने वाले? आज मैं आपको एक ऐसे इंसान से मिलवाने जा रही हूँ, जो एक मुस्लिम तो है ही, उससे भी बढ़कर एक इंसान है, जिसमें इंसानियत कूट-२ कर भरी है, ताकि आगे से आप कभी किसी व्यक्ति से मिलें, तो उसमें हिन्दू और मुसलमान देखने के बजाय इंसान देखने की कोशिश करें। एक प्रमुख बात जिसकी ओर मैं आपका ध्यान दिलाना चाहती हूँ, वो ये कि बुराई किसी धर्म में नहीं, बल्कि उससे जुड़ी कट्टरता में होती है। अगर ये कट्टरता हम धर्म के बजाय इंसानियत में दिखाएँ, तो ये दुनिया रहने के लिए कहीं एक बेहतर जगह बन जाएगी।

दुलारे से हमारी मुलाकात सितम्बर २००५ में हुई, जब हमारे घर पर गाड़ी खरीदने का निश्चय किया गया। वो था तो हमारा ड्राइवर, पर कुछ ही दिनों में घर के एक सदस्य की तरह लगने लगा था। घर में या बाहर, कोई भी और किसी भी तरह की परेशानी हो, सभी लोगों की जुबान पर एक ही नाम रहता था, दुलारे का। हम सभी बच्चे उन्हें ‘दुलारे भैया’ कह कर बुलाते थे। वो भी एक बड़े भाई की तरह हमारा ध्यान रखते थे। बात चाहे बाज़ार जाकर सामान लाने की हो या घर के किसी काम की, कोई त्योहार हो या घर का कोई विशेष आयोजन, हर काम में आगे बढ़कर हाँथ बँटाते थे हमारे दुलारे भैया। यहाँ तक कि उन्होंने अपने घर में बनने वाली ‘स्पेशल बिरयानी’ भी मुझे बनानी सिखाई; हालांकि ये बात अलग है कि उसे मेरे लिए नॉनवेज से बदलकर वेज़ का रूप दिया गया था। बाज़ार में दुकानदारों से भी हमारे लिए मोल-तोल करने के लिए लड़ जाते थे वे।

हमारे लिए तो वे रक्षा-कवच थे ही, दूसरों की मदद करने में भी हमेशा आगे रहते थे। एक बार कहीं जाने के लिए हम उनका इन्तजार कर रहे थे, २ घण्टे होने पर भी वे नहीं आए और ना ही फ़ोन ही रिसीव कर रहे थे। हमें गुस्सा भी आ रहा था, साथ ही साथ चिन्ता भी हो रही थी कि वो कहीं मुसीबत में ना फ़ँस गए हों। जब वे आए और हमें पूरी बात मालूम चली, तो सिर गर्व से ऊँचा हो गया हमारा। असल में हुआ ये था कि जी. टी. रोड चौराहे पर एक बड़े गड्ढे की वजह से जाम लग गया था, जिसे खुलवाने में पुलिस भी नाकाम हो रही थी। दुलारे भैया को जब ये पता चला, तो उन्होंने हमारे घर आने की बजाय वहाँ जाकर मदद करना ज्यादा जरूरी समझा। उन्होंने सबसे पहले २ आदमियों को साथ लेकर सड़क के किनारे पड़े ईंट, मिट्टी और कचरे से उस गड्ढे को भरा, फ़िर एक-२ करके गाड़ियों को निकाला। सभी उनकी तारीफ़ करते हुए और दुआएँ देते हुए जा रहे थे। आज के युग में लोगों को जहाँ सिर्फ़ अपना स्वार्थ दिखाई देता है, उनका इस तरह सबकी मदद करना, उन्हें लोगों की नज़रों में ऊँचा उठा रहा था।

                                               क्रमश: ...

बुधवार, 2 अप्रैल 2014

लप्रेक (लघु प्रेम-कथा) – [३]






दुनिया से निराली प्रेम कहानी थी उनकी और ऐसे ही निराले थे वो, कुहू और कनिष्क। एक-दूसरे से बिल्कुल अलग, परन्तु दूध और पानी की तरह एक-दूसरे से मिले हुए। कुहू जब तक कनिष्क को अपने दिन भर की एक-२ बात न बता दे, उसे चैन नहीं पड़ता और कनिष्क भी उसकी छोटी से छोटी बात को बड़े प्यार से सुनता। कुहू, कनिष्क की एक बात से बड़ा चिढ़ती थी कि वो उससे अपनी कोई भी बात शेयर नहीं करता था। पर कुहू को ये नहीं पता था कि वो ऐसा जानबूझकर करता था। कनिष्क को उसे सताने में बड़ा मजा आता था; क्योंकि जब वो रूठ जाती थी, तो बिल्कुल गुड़िया की तरह लगती थी और वो उसे मनाने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहता था। छोड़ता तो वो उसे सताने का भी कोई मौका नहीं था, लेकिन वो ये नहीं जानता था कि कुहू को उसके दिल की हर बात पता होती है। कुहू जानती थी कि वो उसके दिल की छोटी से छोटी ख्वाहिश पूरा करने के लिए जी-जान लगा देता है, भले ही उसे बताता न हो। उसके इसी प्यार पर तो बलिहारी जाती थी वो। इन्हीं छोटी-२ बातों ने उनकी ज़िन्दगी की बगिया को महका रखा था और वे उस बगिया में खिले दो फ़ूलों की तरह अपनी खुशबू से एक-दूसरे की ज़िन्दगी को खुशनुमा बना रहे थे; बिल्कुल इस गीत की तरह................

किसी ने अपना बना के मुझको, मुस्कुराना सिखा दिया।
किसी ने हँस के अँधेरे दिल में, चिराग जैसे जला दिया॥

वो रंग भरते हैं ज़िन्दगी में, बदल रहा है मेरा जहाँ।
कोई सितारे लुटा रहा था, किसी ने दामन बिछा दिया॥

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रविवार, 16 मार्च 2014

होली में मज़हब का रंग!






आज अपनी मुस्लिम कामवाली से होली खेलने के बारे में पूछने पर जो जवाब मिला, वो दिमाग ‘सुन्न’ कर देने वाला था।

जब मैंने पूछा कि जब हम खुशी-२ ईद मनाते हैं, तो तुम लोग होली क्यों नहीं मनाते?

ये सुनकर उसके चेहरे के भाव बिगड़े और थोड़ा चिढ़कर बोली:

‘आप लोग हमारे ‘हुसैन’ के ‘खून’ से होली खेलते हो।’

मैं सन्न रह गई, इस जवाब की तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी।

मैंने पूछा, तुमसे ऐसा किसने कहा?

‘हमारी ‘कुरान’ में लिखा है’, जवाब मिला।

‘तुमने ‘कुरान’ पढ़ी है?’

‘नहीं.... हमारे लोगों ने बताया है।’

फ़िर मैंने उसे बैठाकर ‘प्रहलाद और होलिका’ की कथा सुनाई तथा हिन्दुओं के द्वारा होली मनाये जाने का कारण बताया। पता नहीं, वो मेरे जवाब से कितना सन्तुष्ट हुई।

मेरे मन की बेचैनी अभी भी समाप्त नहीं हुई है। क्या दे रहे हैं हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को? एक-दूसरे के प्रति नफ़रत, वो भी धर्म के नाम पर झूठी बातें फ़ैलाकर। हमारी सहिष्णुता और सर्व-धर्म-समभाव की भावना तो जाने कहाँ लुप्त हो गई।

‘धर्म’ उस ईश्वर / अल्लाह तक पहुँचने के मार्ग भर हैं, उससे ज्यादा कुछ नहीं। कृपया आप इन्हें अपने जीने और मरने की वजह मत बनाइए।

आइए इस होली पर हम सारे बैर-भाव भूल कर हिन्दु और मुस्लिम धर्मों को आपस में गले मिला दें। ( मैंने सिर्फ़ दो धर्मों का उल्लेख इसलिए किया है, क्योंकि पिछले कुछ सालों में इनके बीच की खाई निरन्तर बढ़ती जा रही है। आप इसे अन्यथा न लें। )

यही हमारी इस ‘होली’ पर एक-दूसरे के प्रति सच्ची शुभकामनाएँ होंगी।

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