मेरे आँसू लगातार बहे जा रहे थे और मैं उन्हें रोकने का कोई प्रयास नहीं कर रही थी, क्योंकि मैं इन आँसुओं में अपने उन सारे दु:खों, खीजों, अपमान, तंज और लोगों द्वारा दिए गए बेचारगी के एहसास को बहा देना चाहती थी, जो पिछले अनगिनत सालों में मैंने अपने दिल पर झेले थे। पूरा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज रहा था, आज मेरी बेटी को ‘ग्रेमी अवार्ड’ मिला था; वही बेटी, जिसके पैदा होने के बाद से लगातार हर दूसरे व्यक्ति ने इसके मरने की दुआएँ माँगी थीं, ताकि मैं खुशी-२ जी सकूँ; पर मेरी खुशी तो मेरी बेटी में थी। आज उसने मेरी खुशी को मेरी पलकों पर सजा दिया था। एक सामान्य व्यक्ति के लिए ग्रेमी अवार्ड आकाश के तारे तोड़ने के समान होता है, फ़िर मेरी बेटी तो मानसिक रूप से विकलांग थी।
“ नन्दिनी, चलो तुम्हें भी स्टेज पर बुला रहे हैं,” मुझे खयालों में खोया देख मेरे पति ने मेरे कन्धे पकड़ कर मुझे हिलाया।
मैं अपने बहते आँसुओं को पोंछ कर मुस्कुराते हुए मंच की ओर बढ़ी और वहाँ पहुँच कर अपनी बेटी को चूमकर गले लगा लिया। पूरा हॉल एक बार फ़िर तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।
गाड़ी से होटल वापस लौटते हुए मेरा मन बार-२ अतीत के भँवर में हिचकोले खा रहा था। मेरे सामने हॉस्पीटल का वो दृश्य बार-२ घूम रहा था, जब मैं अपनी बेटी के जन्म के सात दिन बाद भी उसके अपनी गोद में दिए जाने का इन्तजार कर रही थी। उसे जन्म देने के बाद से ही NNICU में रखा गया था। तभी एक सीनियर रेजीडेण्ट डॉक्टर ने मेरे कमरे में प्रवेश किया और मुस्कुराते हुए पूछा,
“अब कैसी तबियत है आपकी?”
“मैं ठीक हूँ डॉक्टर, मेरी बेटी कैसी है? मैं उसे गोद में कब खिला पाऊँगी?” मेरा ध्यान मेरी बेटी से हट ही नहीं पा रहा था।
“वो अब पहले से बेहतर है। वैसे आपके कितने बच्चे और हैं?” डॉक्टर ने कुछ उत्सुकतावश पूछा।
“यही पहली है और आखिरी भी।” मैनें चहकते हुए जवाब दिया।
पर डॉक्टर के चेहरे की चमक अचानक खो गई और उन्होंने कुछ बुझे हुए स्वर में कहा,
“आपको ऐसे बच्चे के साथ इसके भाई/बहन के बारे में भी सोचना चाहिए।”
“ ‘ऐसे बच्चे के साथ’ से क्या मतलब है आपका? क्या हुआ है मेरी बेटी को?” मैं लगभग चीखते हुए बिस्तर से उठी और काँपते हुए पास पड़े हुए सोफ़े पर गिर पड़ी।
“जन्म के समय उसके ब्रेन को प्रॉपर ऑक्सीजन नहीं मिल पाई, जिससे उसके ब्रेन का एक पार्ट डेमेज हो गया है। मेडिकल टर्म्स में इसे CP यानि ‘सेलेब्रल पैल्सी’ कहते हैं।”
“हो सकता है आपकी बेटी ज़िन्दगी में कभी चल और बैठ भी ना पाए, बोलना और समझना तो बहुत दूर की बात है।”
डॉक्टर बोले जा रही थी और मैं चेहरे पर बिना कोई भाव लिए उन्हें सुने जा रही थी। शब्द सिर्फ़ उनके मुँह से मेरे कान तक जा रहे थे, समझा तो मैंने उन्हें कुछ देर बाद था। जिसके साथ ही एक रुलाई भी मेरे अन्दर से फ़ूट पड़ी थी। बहुत कुछ था, जो एकसाथ मेरे अन्दर टूट गया था; मेरे सपने, मेरी आकांक्षाएँ और भी ना जाने कितना कुछ। बहुत देर तक मैं उस सोफ़े पर ऐसे ही बैठी रही।
अचानक ही मेरे अन्दर से ही आवाज़ आई,
“नहीं, मैं इस तरह हार नहीं मान सकती। अगर उस ईश्वर ने मेरी परीक्षा ही लेनी चाही है, तो मैं इस परीक्षा में भी सफ़ल होकर दिखा दूँगी। मैं इस तरह खुद को टूटने तो हरगिज़ नहीं दूँगी।”
कुछ देर बाद जब मेरे पति कमरे में आए, तो मुझे इस तरह सोफ़े पे बैठा देख कर शायद ये समझ गए कि मुझे सब पता चल चुका है, पर उन्होंने कुछ कहा नहीं; चुपचाप मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर मेरे पास ही बैठ गए, मैंने उनके कन्धे पर अपना सिर टिका दिया। फ़िर धीरे से पूछा,
“आपने मुझे बताया क्यों नहीं? खुद ही सारा दर्द चुपचाप सहते रहे। यहाँ तक कि अपने चेहरे से भी कुछ जाहिर नहीं होने दिया।”
“क्या कहता मैं और फ़िर जो हो गया, उसे बदला तो नहीं जा सकता ना? उस पर तुम्हारी हालत ऐसी नहीं थी कि तुम्हें कुछ बताया जाता। अब हम दोनों को साथ मिल कर ही इसकी ज़िन्दगी सँवारनी है।” मेरे पति बहुत ही शांत-भाव से मुझे समझा रहे थे। मैं उनके इसी गुण की तो कायल थी।
फ़िर उन्होंने मुझे सहारा देकर बिस्तर पर लिटा दिया और मेरे लिए गिलास में जूस निकालने लगे।
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.....क्रमश:
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खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-२
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