मंगलवार, 7 जून 2016

मैं और मेरे पापा – ४ (पापा की यादों का कोलाज़)







आज पापा के जन्मदिन पर उन्हें याद करते हुये...

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अभी कुछ दिनों से फ़ेसबुक पर # Song Blast  आया देख कर याद आया कि मैंने पापा के संगीत के प्रति प्रेम के बारे में तो कुछ लिखा ही नहीं। यदि ये कहें कि संगीत उनकी रगों में लहू की तरह बहता था, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। मुझमें जो संगीत के प्रति प्रेम कूट-२ कर भरा है, ये भी उनकी ही देन है। एक तरह से कहें, तो हम दोनों की जान है ‘संगीत’। बहुत सी बातों में एक ये बात भी थी, जिसने हमारी दोस्ती को पक्का बनाया। .. :))

उन्हें सुनने के साथ-२ गाने का भी शौक था। अच्छा गला भी पाया था उन्होंने। वो रात में सोने से पहले भजन सुनाया करते थे। उनका एक प्रिय भजन था,

“हमें हे कृष्ण, हे केशव तुम्हारा ही सहारा है
ना तुमको छोड़कर संसार में कोई हमारा है।”


आजकल ये भजन मैं अपनी बेटी को सुनाती हूँ। उसने भी अपनी माँ से विरासत में संगीत पा लिया है।
और हाँ, इसी सन्दर्भ में पापा की एक शरारत याद आ गई। उन्हें टी.वी. या रेडियो पर आ रहे मेरे प्रिय गीत के साथ अपना सुर जरूर लगाना होता था, क्योंकि ये मुझे सख्त नापसन्द था; और मैं बेचारी, गुस्सा दबाकर मुस्कुराती रहती थी। .. :))

हाँ, एक और बात..... कविताओं के प्रति मेरी समझ शायद उन्होंने ही विकसित की। ये बात और है कि इसका प्रारम्भ ‘कवि-सम्मेलन’ से हुआ। उन्हें टी.वी. पर कवि-सम्मेलन देखना बहुत प्रिय था और मैं भी उनके साथ चिपक कर बैठी रहती थी। हमारे पागलपन की हद ये थी कि हम एक-दूसरे को कवि-सम्मेलन दिखाने के लिए सोते से भी जगा देते थे, चाहे वो आधी रात को ही क्यों ना आ रहा हो; और दूसरा इस बात से नाराज भी नहीं होता था। इसी पागलपन के दौरान ११ साल की उम्र में मैंने अपना तख़ल्लुस ‘गुंजन’ रख लिया था। हालांकि उस समय मुझे कविता का ‘क’ भी नहीं आता था। कवि-सम्मेलन देख-देखकर ही मैं बचपन में ‘कवियत्री’ होने के सपने देखा करती थी। लिखती तो मैं आज भी बहुत अच्छा नहीं हूँ; मैं तो बस उस छोटी सी बच्ची के बड़े से सपने को जिन्दा रखे हुये हूँ। ये मुझे बाद में पता चला कि जिस तखल्लुस को उस बच्ची ने इतने प्यार से अपने लिए चुना था, वो उसके पसंदीदा कवि ‘नीरज’ के बेटे का नाम था, जो शायद उन्होंने ही रखा होगा। फ़िर तो इसे छोड़ने का सवाल ही नहीं पैदा होता। हालांकि अब उस बच्ची के पसंदीदा शायर अहमद फ़राज और हरिवंश राय बच्चन हैं।

पापा के संगीत-प्रेम की हद ये थी कि उन्होंने ‘बुश’ का रेडियो उस समय खरीदा था, जब इसके लिए उन्हें ‘इन्कम-टैक्स’ भी देना पड़ता था। आप शायद ये सुनकर अपना सिर पकड़ लेंगे कि इसे खरीदने के लिए उन्होंने अपनी ३ महीने की तनख्वाह एकसाथ कुर्बान कर दी थी। रेडियो का प्रसारण भी तब २४ घण्टे नहीं होता था, सो बाकी के समय में संगीत की मधुर सुर-लहरियों के लिए ‘पैनासोनिक’ के टेपरिकॉर्डर का इन्तजाम भी किया गया। हद तो ये थी कि रात में पापा के सिरहाने के एक तरफ़ रेडियो होता था और एक तरफ़ टेपरिकॉर्डर। उनकी ४० साल पहले की खरीदी गई मेरी सूरत तेरी आँखें, प्रदीप के गीत, हरिओम शरण के भजन, के. एल. सहगल, शमशाद बेग़म, सुरैया आदि की कैसेट्‌स मेरे पास आज भी मौजूद हैं। मैंने भी पी.सी.एस. के इण्टरव्यू के लिए सेलेक्शन होने पर उनसे ‘सोनी’ का कैसेट प्लेयर गिफ़्ट में लिया था।

संगीत-प्रेम के साथ-२ उनके फ़िल्म-प्रेम के भी कई मजेदार किस्से हैं। परन्तु इस बात में मैं उनसे भिन्न हूँ; मैं फ़िल्म देखने के मामले में बहुत ‘चूजी’ हूँ। मैं सिर्फ़ देखने के लिए कोई फ़िल्म नहीं देख सकती। मैं सिर्फ़ वही फ़िल्में देखना पसन्द करती हूँ, जो मुझे कुछ रातों तक बेचैन रखे, जिसका कोई टुकड़ा मेरे जेहन में अटका रह जाये। परन्तु पापा, उन्हें सिर्फ़ फ़िल्म देखने से मतलब था। ऐसा नहीं है कि वो किसी फ़िल्म को देखने के बाद उसे बुरा नहीं कहते थे, पर वो उसे अधूरा भी नहीं छोड़ते थे। हालांकि नई फ़िल्में उन्हें थोड़ा कम पसन्द थीं।

एक समय जब टॉकीज केवल बड़े शहरों में हुआ करती थीं और टी.वी. भी इतना प्रचलन में नहीं था, तब पापा ‘हाथ का पंखा’ साथ में लेकर ‘फ़ट्टा टॉकीज’ में फ़िल्में देखने जाया करते थे। फ़ट्टा टॉकीज में चारों तरफ़ टाट के पर्दे डालकर वीडियो-प्लेयर पर फ़िल्म दिखाई जाती थी। जब हमारे घर टी.वी. आया, तो शायद ही कोई फ़िल्म हो, जो उन्होंने ना देखी हो। टी.वी. चलाने के लिए एक अलग बैटरी का इन्तजाम भी कर रखा था उन्होंने। पुरानी फ़िल्मों के सारे कलाकारों से मेरा परिचय उन के द्वारा ही हुआ। बलराज शाहनी, मीनाकुमारी और राजकपूर हमारी ‘कॉमन पसन्द’ थे। पर मैं उनके साथ कभी रात में जागकर फ़िल्म नहीं देखती थी, क्योंकि फ़िल्म खत्म होने के बाद वो हमेशा चाय की फ़रमाइश कर देते थे और मुझे उस समय जोरों की नींद आ रही होती थी। रात में जागना मैंने शायद उनसे विरासत में पाया है।

तो जब फ़िल्मों और संगीत से इस कदर उनकी यादें जुड़ी हों, तो कैसेकर उन्हें भुलाया जा सकता है। रोज ही कोई ना कोई गीत उनकी याद दिला जाता है और आँखें छलछला आती हैं। पर उन बूँदों में वो हमेशा मुस्कुराते दिखते हैं, ताकि मुझे मुस्कुराता हुआ देख सकें।

मुझे सबसे ज्यादा दु:ख इसी बात का है कि वो मेरे दु:खों का बोझ अपने सीने पर लेकर गये हैं और मैं उन्हें बता भी नहीं पाई कि मैंने इनके साथ खुशी से जीना सीख लिया है।

उनके एक पसन्दीदा गीत की पंक्तियों के साथ विदा लेती हूँ.....

“मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया,
                  हर फ़िक्र को धुँए में उड़ाता चला गया।”


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