अभी कुछ दिनों से एक अलग तरह की बयार फिजां में तैर रही है कि बच्चों को किस तरह संस्कार दिए जाएँ तथा कैसे उनमें अपने माता-पिता के प्रति प्यार एवं आदर उत्पन्न किया जाये...
इसकी एक बानगी फिल्म 'फेरारी की सवारी' में भी देखने को मिलती है... ऐसा नहीं है कि ये समस्या अभी हाल में ही उत्पन्न हुयी है, बल्कि ये काफी समय से हमारे समाज का हिस्सा बनी हुयी है...
फिल्म में जिस तरह सरमन जोशी अपने बेटे को संस्कारों से परिचित कराता है, वो एक मिसाल की तरह प्रतीत होते हैं और ये सिद्ध करते हैं कि संस्कारों को बच्चों के सामने कथनी की तरह नहीं, बल्कि करनी की तरह पेश करना चाहिए... एक और बात जो मन को अत्यधिक भावुक कर देती है, वो है नायक का अपनी हर समस्या को हँसते-२ सुलझाना और जिंदगी के मजे लेना...
आज जब हम Traffic Rules तोड़ने के बाद ये देखते हैं कि कहीं आसपास Traffic Police तो नहीं और ना होने पर चैन की साँस लेते हैं या होने पर कुछ पैसे दे कर केस रफा-दफा करवाना चाहते हैं... वहीँ फिल्म का नायक अपने बेटे के स्कूल की बातें सुनते-२ अनजाने में signal तोड़ने पर Traffic Police को ढूंढता है और वहां उसे ना पाकर अगले Traffic Signal पर जाकर चालान काटने को कहता है... जब Police वाला कहता है कि आपको किसी ने देखा तो था नहीं, आपको चले जाना चाहिए था; हम ऐसे चालान नहीं काटते... इस पर नायक अपने बेटे की तरफ इशारा करके कहता है कि मेरा बेटा देख रहा था... जब तक ये मुझे नियमों का पालन करते हुए देखेगा नहीं, तो खुद क्या सीखेगा... इस बात पर उसके बेटे की मुस्कुराहट एक सार्थक दृष्टिकोण की पुष्टि करती है...
एक और बात जो मुझे अत्यंत प्रेरणास्पद प्रतीत होती है, वो ये कि बच्चे के दादाजी का अत्यंत रूखेपन से पेश आने तथा बात-२ पर चिल्लाने के बावजूद नायक का अपने बेटे को समझाना कि अपने बड़ों से आदर से बात करते हैं तथा उनकी बात का बुरा नहीं मानते; ये वक्तव्य वर्तमान समय में बुजुर्गों के प्रति असहनशीलता की समस्या को उजागर करते हुए उसके समाधान को इंगित करता है...
इसके साथ ही नायक का अपनी कठिनाइयों के बावजूद अपने बच्चे की जरूरतों का ध्यान रखना तथा उन्हें पूरा करने की हर संभव कोशिश करना, उस बच्चे में भी जिम्मेदारी की भावना जाग्रत करता है; साथ ही हमें भी कुछ सिखा जाता है... वैसे एक बात तो समझ में आती है इस फिल्म को देखने के बाद कि बच्चों को सही ढंग से पलना 'बच्चों का खेल' नहीं होता...
वैसे मैं सभी माता-पिता से यही प्रार्थना करना चाहूंगी कि वो अपने बच्चों को समझने की कोशिश करें और ये एहसास करने की कोशिश करें कि 'बच्चे इतने भी बच्चे नहीं होते'...
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बच्चे एक व्यक्ति भी होता है, उसका भी अपना व्यक्तित्व होता है.
जवाब देंहटाएंआपकी इस बात से सहमत हूँ कि बच्चे इतने भी बच्चे नही होते ...
जवाब देंहटाएंजिसकी औक़ात सवा लाख रूपए की न हो,उसे फेरारी की चोरी करने की बजाए श्रम करके बच्चे के सामने आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए।
जवाब देंहटाएंश्रीमन,
हटाएंमैंने ये लेख फिल्म के सन्दर्भ में नहीं, बल्कि बच्चों के पालन-पोषण के सन्दर्भ में लिखा है... फिल्म का second part तो मुझे भी अच्छा नहीं लगा... वैसे बंद घडी भी एक बार सही समय तो बताती ही है... मुझे तो जहाँ से भी कुछ अच्छा मिलता है, मैं ग्रहण कर लेती हूँ...
वैसे मेरे वश में होता, तो मैं फिल्म का second पार्ट बदल देती... :(
उम्दा आलेख |आभार
जवाब देंहटाएंबच्चों का मनो गणित समझना बहुत कठिन है लेकिन उन्हें यदि न समझा जाय तो क्या कर बैठते है इसकी मत पूछो ..छोटे-छोटे बच्चों के साथ आजकल हमारी भी जिंदगी यूँ ही झूल रही है ..
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुति ..आभार आपका