बुधवार, 11 मार्च 2015

एक अदनी सी गाँधी की चहेती का मि. काटजू को खुला पत्र...!



मि. काटजू,

आप अक्सर अपने बयानों से विवादों में आते हैं और लोगों से भी आपको प्रतिक्रिया मिलती है, अच्छी हो या बुरी; क्योंकि आप उच्च पदस्थ हैं। अब आपने गाँधी को निशाना बनाया है, लोग अक्सर बनाते हैं और सब चुप रहते हैं। मैंने ही एक बार लिखा था कि “गाँधी के बारे में लोग उतना ही जानते हैं, जितना लोगों ने लिखा, जिसमें नकारात्मकता ही अधिक थी एवं सच्चे और ईमानदार लोग (लेखक) हमेशा की तरह चुप रहे।”

मैं ना तो खुद को बहुत बड़ा लेखक मानती हूँ और न ही मुझे ये लगता है कि मेरे लिखने का लोगों पर कोई खास असर पड़ेगा, क्योंकि लोग तो सिर्फ़ उच्च पदस्थ या प्रभावशील लोगों को ही संज्ञान में लेते हैं; पर मैं फ़िर भी चुप नहीं रह सकती। मैं गाँधी जी की अदनी सी चहेती उन्हीं को देख-सुन कर बड़ी हुई हूँ। मैं ये नहीं कहती कि उनमें कोई कमियाँ नहीं थीं, पर उन्होंने जो किया, वो एक आम इन्सान के वश की बात तो कतई नहीं थी।

परन्तु जिन कमियों की ओर आपने उँगली उठाई है, उन पर मुझे सख्त ऐतराज है और मैं यह कहने पर विवश हूँ कि आप गाँधी को बिल्कुल नहीं जानते। कहीं से कुछ पढ़कर उसका मनमाना अर्थ निकालना कम से कम आप जैसे उच्च पदासीन व्यक्ति को तो कतई शोभा नहीं देता। मैंने उन्हें जितना पढ़ा और जाना है, उस दृष्टिकोंण से मैं अपनी कुछ बातें रख रही हूँ, पता नहीं आपको समझ आएँगी या नहीं, परन्तु जैसे आप मजबूर हैं, मैं भी मजबूर हूँ।

किसी भी लड़ाई को २ तरीकों से जीता जा सकता है या तो अपने विरोधियों को शारीरिक रूप से परास्त कर दो या उन्हें मानसिक रूप से पस्त कर दो। और हम सभी ये अच्छी तरह से जानते हैं कि अंग्रेजों की आधुनिक शस्त्रों से लैस विशाल सेना को शारीरिक रूप से परास्त करना आम भारतीय नागरिकों के लिए असम्भव था। इसलिए गाँधीजी ने दूसरा रास्ता चुना, अंग्रेजों को आत्मबल के द्वारा मानसिक रूप से तोड़ने का और जिसमें वे सफ़ल भी रहे। आम सी दिखने वाली भारतीय जनता ने अंग्रेजों की विशाल सेना को अपने आध्यात्मिक बल से खदेड़ दिया; आध्यात्मिक चेतना / बल, जो हमेशा से भारत की शान रहा है। हमें हमेशा वही राह चुननी चाहिए, जो हमारी ताकत हो, न कि हमारी कमजोरी।

आप अकबर को धर्म-सहिष्णु कहकर गाँधीजी की आलोचना सिर्फ़ इसलिए कर रहे हैं कि वो एक कट्टर हिन्दू हैं और हिन्दू मान्यताओं की वकालत करते हैं, पर शायद आप नहीं जानते कि गाँधीजी की सबसे ज्यादा आलोचना इसी बात पर की जाती है कि वे मुसलमानों के पक्षधर थे और मुसलमानों के हित में ही सोचते थे। उनके इसी मुस्लिम-प्रेम से आहत होकर एक कट्टर हिन्दू ने उन्हें गोली तक मार दी और आप कहते हैं वो साम्प्रदायिक थे। कोई उन्हें हिन्दू उपासक कहता है, कोई मुस्लिम-प्रेमी और वो मसीहा इन दोनों को ही गले लगाए हुए इस नाशुक्री दुनिया से विदा हो गया। गाँधीजी के ही शब्दों में,
“हिन्दू और मुस्लिम मेरी दो आँखें हैं।”

आप का कहना है कि गाँधीजी के हिन्दुत्ववादी विचारों से निराश होकर ही मुसलमान ‘मुस्लिम-लीग’ का गठन करने को प्रेरित हुए, पर शायद आप इस तथ्य से परिचित नहीं कि गाँधीजी के भारत लौटने और स्वतन्त्रता-संग्राम में भाग लेने से ७ साल पहले ही मुसलमान आगा खाँ नेतृत्व में ‘मुस्लिम-लीग’ का गठन कर चुके थे। ‘फ़ूट डालो और राज करो’ की नीति को अंग्रेजों ने क्यों अपनाया, इसकी वजह मैं आपको बताती हूँ। गाँधीजी के नेतृत्व में पूरा देश सारे भेदभाव भुला कर एकसाथ एकजुट होकर अंग्रेजों के विरुद्ध डट कर खड़ा था, उनकी इस संगठित शक्ति को देखकर अंग्रेजी सत्ता पत्ते की तरह काँप गई और उन्हें बस यही ख्याल आया कि इन्हें एक-दूसरे से अलग किए बिना भारत में टिके रहना असम्भव है। अंग्रेजों को इनमें फ़ूट डालने का सबसे सरल तरीका धार्मिक आधार पर भेदभाव लगा। हम भारतीय बेचारे तो आज भी ये नहीं जानते कि जिस तरह आध्यात्मिकता हमारी सबसे बड़ी ताकत है, उसी तरह धार्मिकता हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है। जिस दिन हम ये जान गए, उस दिन सारे विश्व में हमारी पताका फ़हराएगी।

वैसे जिस ‘धर्म’ को राजनीति में प्रवेश कराने की बात गाँधी जी ने कही (जिसकी वजह से आपने उन्हें ‘ब्रिटिश एजेन्ट’ तक कह दिया) उसके मर्म को समझना आपके वश की बात नहीं। गाँधीजी के ही शब्दों में ज़रा एक बानगी देखिए,
“धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पहलुओं को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। जो धर्म को राजनीति से अलग करने के पक्षधर हैं, वो धर्म का सही मर्म नहीं जानते। धर्म ‘सत्य’ से किसी भी रूप में विलग नहीं है और सत्य के बिना राजनीति कदाचित् असम्भव है।”

आपकी इस बात पर तो मुझे हँसी आ गई कि हम एडोल्फ़ हिटलर की वजह से स्वतन्त्र हुए। चूँकि जर्मनी ने इंग्लैण्ड को द्वितीय विश्व-युद्ध में कमजोर कर दिया, इसलिए अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा। पर जो बात मेरे गले से नहीं उतर रही, वो ये कि उनके यहाँ बने रहने में क्या परेशानी थी, क्योंकि आपके नजरिये से तो न तो गाँधीजी ही जनता के साथ मिलकर कुछ कर पा रहे थे और न ही ये शस्त्र-युद्ध था कि अब इंग्लैंड कमजोर हो गई, न ही उपवास और पदयात्रा से कुछ होने वाला था; फ़िर चले क्यों गए? आखिर वजह क्या थी?

मैं आपको इसका जवाब देती हूँ, किसी व्यक्ति को आप तभी गुलामी की जंजीरों में जकड़ सकते हैं, जब वो मन से आपकी गुलामी स्वीकार कर ले। एक बार व्यक्ति ये जंजीरें तोड़ दे, फ़िर चाहे वो शारीरिक रूप से कितना ही कमजोर क्यों न हो, आप उसे गुलाम नहीं बना सकते। गाँधीजी के योगदान को जो नहीं समझ पाते, वो ये समझ लें कि ये गाँधी ही थे, जिन्होंने लोगों के मन से गुलामी के बन्धन को तोड़ा, उन्हे ये विश्वास दिलाया कि एकजुटता में कितनी ताकत होती है और भारत की जनता को पूरे आत्मबल के साथ अंग्रेजों के विरुद्ध खड़े होने का साहस दिया, जो और किसी के वश की बात तो बिल्कुल नहीं थी।

बस यही गाँधी की कहानी है..........!

                          **********
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...