इससे पहले कि समय के विशालकाय पंजों में छटपटाते हुए मेरी याददाश्त दम तोड़ दे। पापा से जुड़ी हुई अपने मन की सुकोमल स्मृतियों को मैं अपने शब्दों के उपवन में सहेज लेना चाहती हूँ, जहाँ मील के पत्थर की भाँति जीवन के वे विटप खिले हैं, जिन्हें चाहे-अनचाहे मेरे कदमों ने पार किया है। कदम पीछे लौटना चाहते हैं, पर वक्त किसका हुआ है भला; हमें तो आगे ही बढ़ते जाना है, मुड़-२ कर पीछे देखते हुए.....
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वैसे तो मैं जब बहुत छोटी सी थी(शायद ९-१० साल की), तभी से कविताएँ लिखने की कोशिश किया करती थी। कवियित्री बनने का बड़ा शौक था बचपन से ही मुझे।
जब थोड़ी बड़ी हुई और कुछ कच्चा-पक्का लिखना शुरू किया, तो सबसे पहले ले जाकर पापा को दिखाती थी। और पापा.......... बस ..........‘लाल पेन’ लेकर बैठ जाते और ऊपर से नीचे तक उस पेज़ को रंग देते। उस पेज़ पर नीले से ज्यादा लाल रंग दिखता था। मैं अक्सर मुँह बना कर कहती.....“कभी तो तारीफ़ कर दिया करो”.. लेकिन ना मेरा उनके पास जाना छूटता और ना उनका गलतियाँ निकालना।
एक दिन मुझे भी शरारत सूझी। मैनें भी जावेद अख्तर जी की एक कविता उनके सामने ले जाकर रख दी, ये कह कर कि मैंने अभी लिखी है। उसमें भी उन्होंने अपनी आदत के मुताबिक गलतियाँ निकालना शुरू कर दिया। अभी वो चौथी लाइन पर ही पहुँचे थे कि मैंने खुश होकर उछलना शुरू कर दिया और हँसते हुये कहने लगी.....‘‘ये तो जावेद अख्तर की कविता है, इसका मतलब आप जानबूझकर गलतियाँ निकालते हैं।”
पर पापा तो पापा हैं ना, कहने लगे...“तो जावेद अख्तर कोई तोप है? मैं बहुत अच्छा एडिटर हूँ।”
कितने खुश होते थे पापा मेरे सामने अपनी तारीफ़ करके और मैं भी उन्हें खुश देखकर खुश हो जाती थी।
ईश्वर करे वो जिस जहाँ में हों, खुश हों और हमारी यादों में हमेशा मुस्कुराते रहें.....
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मैं आज जिस रूप में भी आपके सामने हूँ, पूरी तरह से पापा की गढ़ी गई मूर्ति हूँ। बस इसमें रंग मैंने अपनी पसन्द के अनुसार भर लिए हैं। उनकी दिखाई राह पर जो एक बार चलना शुरू किया, तो कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उन्होंने हमेशा सच्चाई, ईमानदारी, समानता, सद्भाव की सीख दी। और उनके द्वारा दी गई ये शिक्षा किसी लेक्चर की तरह नहीं, बल्कि छोटे-२ उदाहरणों के रूप में हमारे सामने आई, जो हमारी ज़िन्दगी में से ही लिए गए थे। अध्यात्म की शिक्षा भी मैंने उन्हीं से पाई, ये भी जाना कि ईश्वर मंदिर-मस्जिद में नहीं, आत्मसाक्षात्कार से प्राप्त होता है।
आज से ३० साल पहले भी मैंने लड़के-लड़की का भेदभाव अपने घर में नहीं देखा, जबकि उस समय के समाज में ये काफ़ी गहराई से पैठ जमा चुका था। उन्होंने हमें स्वनिर्माण की प्रेरणा दी, चाहे वो व्यक्तित्व के सन्दर्भ में हो या ज़िन्दगी से जुड़े हुए निर्णयों की बात हो। उन्होंने ना कभी पढ़ने के लिए कहा और ना ही कभी खेलने से रोका; बस ये कहा कि जिस काम का जब मन हो तब करो, बस काम दोनों होने चाहिए। बल्कि मैं तो अक्सर इसलिए डाँट खाती थी कि लगातार और इतना क्यों पढ़ती हूँ और वे जबरदस्ती मुझे पकड़कर TV देखने के लिए ले जाते थे या कभी चाय बनाकर ले आते थे और खुद ही थोड़ी देर गपशप कर लेते थे।
उन्होंने हमें ये बताया कि सही क्या है और ये भी कि सही और गलत का फ़र्क कैसे करें, बाकी सब हम पर छोड़ दिया। घर के महत्वपूर्ण निर्णयों में भी वो हम बच्चों की राय को महत्व देते थे। शिक्षा को उन्होंने हमेशा प्राथमिकता पर रखा। एक बार हमें ३ वर्ष बड़े ही तंगहाली में गुजारने पड़े, उस समय भी उन्होंने हमारी पढ़ाई से सम्बन्धित किसी भी जरूरत को नज़रअन्दाज नहीं किया। उनका कहना था कि शिक्षा ही अन्त तक साथ निभाती है। व्यक्ति की काबिलियत ही इस बात से नापना चाहिए कि उसकी शिक्षा किस प्रकार की है।
बहुत कुछ है उनके बारे में कहने के लिए। कलम है कि रुकना ही नहीं चाहती और मन है कि मानता ही नहीं। पर फ़िर भी कहीं तो विराम देना ही होगा.....
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