अपराजिता नाम था उसका और अपने नाम के अनुरुप ही कभी हार नहीं मानी उसने। वक्त की हर ठोकर को अपने मनोबल से उसने एक नया मुकाम दिया।
अपने माता-पिता की एकमात्र सन्तान थी वो। उसके माता-पिता ने उसे लेकर जो सपने देखे थे, वो उस वक्त चूर-2 हो गये; जब 5 वर्ष की उम्र में पोलियो ने उसे व्हील-चेयर पर बैठा दिया।
उसके माता-पिता एक पल को डगमगाये तो थे, पर उन्होंने हार नहीं मानी। उसे हर सम्भव लाड़-प्यार दिया और वक्त के हर झंझावातों से लड़कर दुनिया के सामने मजबूती से खड़े होने का हौसला दिया। प्यार से अपरा बुलाते थे वो उसे।
वक्त धीरे-2 गुजरता गया, अपरा धीरे-2 बड़ी होने लगी। उसे देख कर कोई नहीं कह सकता था कि उसने कभी जिन्दगी से हार मानी होगी। हर समय हँसती-खिलखिलाती रहती थी वह। उसके माता-पिता भी उसकी खिलखिलाहट से अभिभूत हो जाते थे।
कल्पना चावला को देखकर पता नहीं क्या हो जाता था उसे। कल्पना के अनेकों पंख लग जाते थे और वो आकाश की अनन्त उँचाइयों पर उड़ने लगती थी। पर उसके पंख तो वक्त ने बेरहमी से कुचल दिये थे। फिर भी उसने अपने हौसलों की उड़ान को कभी थमने नहीं दिया। वक्त के साथ और ज्यादा मजबूत बनाती गई वो उन्हें।
कल्पना चावला तो वो नहीं बन सकती थी, पर औरों को बनने के लिये प्रेरित तो कर सकती थी; यही सोचकर शिक्षण को उसने प्रोफेशन के रुप में चुना। शायद यही वो प्रोफेशन था, जिसमें उसकी अपंगता आड़े नहीं आती।
वो दिन भी जल्दी ही आ गया, जब उसका चयन दिल्ली विश्वव़िद्यालय के एक विख्यात कॉलेज में प्रवक्ता के रुप में हो गया। खुशी से फूली नहीं समा रही थी वो। आज वास्तव में उसे महसूस हो रहा था, जैसे वो अनन्त आकाश की उँचाइयों में उड़ी जा रही हो।
धीरे-2 वक्त बीतने लगा। कभी-2 उसका मन अनमना सा होने लगता था, जब वो किसी प्रेमी-युगल या विवाहित जोड़े को देखती। उसका मन विचलित होकर पूछने लगता,
‘‘ क्या उसे कभी कोई प्यार से स्वीकारेगा?''
पर ऐसे विचारों को वो अपने पर हावी नहीं होने देती। आखिर ईश्वर ने उससे ऐसे सपने देखने का हक जो छीन लिया था और ये सपने उसके मन के किसी कोने में टीस बन कर दफन हो गये थे।
उसने कभी सोचा नहीं था कि चैतन्य इस तरह उसकी जिन्दगी में प्यार की फुहार बन कर आयेगा और उसका जीवन खुशियों से भर देगा। चैतन्य से उसकी मुलाकात एक Social site पर हुई थी। धीरे-2 ये मुलाकात इस तरह प्यार में बदल जायेगी, उसने कभी सोचा भी नहीं था।
‘‘ मेरी जीवनसंगिनी बनोगी? ''
हैरान रह गई थी वो, चैतन्य के मुख से यह प्रश्न सुनकर। उसके गाल पर हौले से चपत लगा कर चैतन्य ने उसकी तंद्रा तोड़ी।
खिलखिलाकर हँस दिया था वो। वह भी काफी देर तक उसे इस तरह हँसते हुये देखती रही। फिर हौले से उसने चैतन्य के कंधे पर अपना सिर रख दिया। उसकी आँखों से खुशी के आँसू बह-2 कर उसके अन्तर्मन को भिगोते रहे।
चैतन्य से विवाह के पश्चात तो जैसे उसकी जिन्दगी में खुशियों की बाढ़ आ गई थी, वो उसे सिर-आँखों पर बैठा कर रखता था। पर उसकी खुशियाँ उस समय थम गईं, जब डॉक्टर ने उसे बताया कि बच्चे को जन्म देना उसके लिये खतरे से खाली नहीं हैं। लेकिन चैतन्य ने तो जैसे उसकी खुशियों की जिम्मेदारी अपने सिर ले ली थी। हँसता हुआ बोला वह,
‘‘ इसमें उदास होने की क्या बात है? दुनिया में इतने अनाथ बच्चे हैं, उनका हाथ थामने वाला भी तो कोई होना चाहिए। ''
चैतन्य की बात सुनते ही अपराजिता के चेहरे की हँसी लौट आई और वो भी उसके साथ खिलखिलाकर हँस पड़ी।
अगले ही दिन वो ‘सरोजनी देवी अनाथालय' पहुँच गये; सारी रात नींद नहीं आई थी अपराजिता को। अन्दर पहुँच कर दोंनो एक स्वर में बोल पड़े,
‘‘ हमें एक बेटी को गोद लेना है।''
फिर दोनों ही एक दूसरे की तरफ देख कर मुस्कुरा दिए।
सारी औपचारिकताएँ पूरी करने के बाद वे अन्दर एक बड़े से हॉल में पहुँचे। जब वो एक बच्ची के पास से गुजर रहे थे, तभी उनके साथ आई अनाथालय की संचालिका ने कहा,
‘‘ इसे रहने दीजिए, यह ‘डाउन सिंड्रोम' से पीड़ित है और शायद कुछ ही दिनों की मेहमान है।''
पर अपराजिता की नजर तो उस बच्ची से हट ही नहीं रही थी। उसने हौले से उसके गालों को छुआ। अचानक उस बच्ची ने उसकी उँगली को पकड़ लिया; जैसे कह रही हो,
‘‘ माँ ! मुझे अपने साथ ले चलो।''
अपराजिता ने चैतन्य से आँखों ही आँखों में कुछ कहा; चैतन्य ने भी प्यार से सहमति में सिर हिलाया। कुछ पलों बाद दोनों ‘अनन्या' के साथ अनाथालय के बाहर थे; यही प्यारा सा नाम तो दिया था उन्होंने अपनी परी को।
जिन्दगी दूर खड़ी उन तीनों को देखकर मुस्कुरा रही थी...................!!
'इति'
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उम्मीद के रास्तों पर जिंदगी की मुस्कान कायम रहे ...
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