गुरुवार, 31 मार्च 2016

कहीं हम डार्विन के वंशज तो नहीं हैं?









क्या आपको नहीं लगता कि हमारा (So called) समाज डार्विन के प्रचलित सिद्धान्त ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ (Survival of the fittest) पर कुछ ज्यादा ही यकीन करता है और लगभग अट्टाहस करता हुआ ऐलान करता है कि ‘जो डर गया, वो मर गया’। सच कहूँ, तो आप यकीन नहीं मानेंगे कि यही समाज फ़िर उन लोगों को डराने से बाज नहीं आता, जो उनके सामाजिक खाँचे में फ़िट नहीं बैठते। कभी-२ तो ऐसा लगता है जैसे डार्विन अपने ही वंशज छोड़ गये हैं, अपने सिद्धान्त की प्रामाणिकता को पुष्ट करने के लिए।

असुन्दर तथा शारीरिक एवं मानसिक रूप से अक्षम लोगों के सम्मान और उनके अधिकारों के बारे में बात किए हुये अभी चन्द दिन ही बीते होंगे कि एक नया मुद्दा सामने आ गया समलैंगिकता का। हम लोगों को नकारने और दुत्कारने में जितनी तत्परता दिखाते हैं, उतनी ही तत्परता से बाहें फ़ैलाकर लोगों को गले लगाने की पहल क्यों नहीं करते? क्या आपको नहीं लगता कि समाज की अनेक समस्याओं की जड़ में एक ही बात विद्यमान है कि हम मन से ज्यादा प्रमुखता तन यानि शरीर को देते हैं। अगर किसी का शरीर किसी व्याधि से ग्रस्त है या आपके सौन्दर्य के पैमाने से जरा भी बाहर है, तो आप उसे नकारने में देर नहीं लगाते; परन्तु आपकी इस कुत्सित सोच का क्या, जो आपके मन को कुरूप बना रही है।

हम लोगों के लिए सहूलियतें पैदा नहीं करना चाहते, बल्कि उनके लिए बाधाएँ खड़ी करने के नये-२ तरीके ईज़ाद करते रहते हैं। हम लोगों का उपहास करना जानते हैं, उन पर उँगली उठाना जानते हैं; परन्तु उनकी उँगली पकड़ कर दो कदम उनके साथ नहीं चल सकते, उन्हें प्यार से गले नहीं लगा सकते।

वैसे कुछ लोग ऐसे भी होंगे, जो ये सब पढ़ने के बाद सोच-२ कर खुश होंगे व गर्व महसूस करेंगे कि वे कम-अस-कम डार्विन के वंशज तो प्रमाणित नहीं हुये। परन्तु क्या ये उनकी नैतिक ज़िम्मेदारी नहीं, कि वे समाज को इन डार्विन के वंशजों से मुक्त करायें? वे समाज में बदलाव तो चाहते हैं, परन्तु सामाजिक बहिष्कार की वजह से चुप रहते हैं। अगर आप बदलाव चाहते हैं, तो बदलाव करने की हिम्मत दिखायें। पहल करें, उसके होने का इन्तज़ार ना करें; क्योंकि मसीहा जन्म नहीं लेते, समाज में से ही पैदा होते हैं।



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बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-३








खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-१

खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-२



परन्तु मेरी खुशी अब भी अधूरी थी। लाख कोशिशों के बाद भी कुहू के मुँह से एक भी बोल नहीं फ़ूटा। हाँ, अस्फ़ुट स्वरों में पूरे दिन कुछ अजीब तरह की आवाजें जरूर निकालती रहती थी। मुझे लगा कि बिना कुछ बोले तो इसके लिए कोई भी राह आसान नहीं होगी; पर एक आशा की किरण अब भी बाकी थी, वो था म्यूजिक के प्रति इसका प्रेम। वैसे तो इसे सभी तरह के वाद्य-यन्त्रों से प्यार था, पर सबसे प्रिय था सिंथेसाइजर। कभी रोते हुए भी इसके सामने सिंथेसाइजर रख दो, तो मैडम जी रोना भूल कर अपनी उँगलियाँ उस पर नचाने लगती थीं। बचपन से अब तक दो सिंथेसाइजर खराब कर चुकी थीं ये।

मैंने घर पर ही इसके लिए सिंथेसाइजर सिखाने के लिए एक टीचर का इन्तजाम किया। पर एक-दो महीने बाद ही वो हार मान गए। कुहू को सिखाना इतना आसान काम नहीं था, क्योंकि वो बहुत ही मुश्किल से किसी बात को समझती थी। एक टीचर हार सकता था, पर एक माँ कभी नहीं। वैसे भी कुहू को सिखाना उनके बनिस्बत मेरे लिए आसान काम था; क्योंकि इतने सालों में मैं उसे बहुत अच्छी तरह समझने लगी थी। मैंने अपनी कुहू से वादा किया,

“तू चिन्ता मत कर। मैं सिन्थेसाइजर को तेरे लिए खुशी का वो साज़ बना दूँगी, जिस पर तू एक दिन अपनी ज़िन्दगी के तराने गुनगुनाएगी।”

इसके बाद जो टीचर मैंने कुहू के लिए लगाया था, उनसे मैं खुद घर पर ही सिंथेसाइजर सीखने लगी। फ़िर नए-२ तरीके ईज़ाद कर कुहू को सिखाना शुरू किया। अब धीरे-२ कुहू की-बोर्ड समझने लगी थी और उम्र बढ़ने के साथ-२ जैसे-२ उसकी समझ बढ़ी, मेरे लिए उसे सिखाना आसान होता गया। एक दिन तो उसने मुझे टोक दिया और इशारे से समझाया कि मैं गलत सुर पर हूँ। मैं खुशी से खिल उठी, ये सोच कर कि आखिर मेरी मेहनत बेकार नहीं गई। अब तो की-बोर्ड पर उसकी उँगलियाँ थिरकती थीं।

एक दिन अखबार में एक संगीत-संध्या प्रोग्राम का एड देख कर मेरी आँखें चमक उठी। प्रोग्राम नेशनल लेवल का था। प्रत्येक बच्चे को किसी भी वाद्य-यंत्र पर १५ मिनट तक परफ़ॉर्म करना था। मैंने फ़ॉर्म लाकर कुहू का नाम भी रजिस्टर करवा दिया।

प्रतियोगिता वाले दिन जब हम कार्यक्रम-स्थल पर पहुँचे, तो शुरू में कुहू भीड़ देख कर घबराने लगी। पर धीरे-२ हमने उसे संयत किया। हालाँकि इस कार्यक्रम में उसे दूसरा स्थान मिला, पर उसके नाम को एक पहचान मिल गई थी।

अब तो कई स्टेज शो के लिए उसे ऑफ़र भी आने लगे। एक संस्था ने तो उसे स्कॉलरशिप भी देनी शुरू कर दी। अब धीरे-२ उसका आत्मविश्वास तो बढ़ ही रहा था, साथ ही ज़िन्दगी के प्रति उसकी ललक भी देखते ही बनती थी।

धीरे-२ उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ने के साथ-२ कुहू सफ़लता के नए-२ सोपान भी पार करती चली गई। मेरे घर के शो-केस अब उसके अवार्डों से भरने लगे। एक शहर से दूसरे शहर फ़ैलते-२ उसकी ख्याति इस देश की सीमाओं को भी पार कर गई। अब अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कुहू के नाम को पहचान मिल गई थी। अब उसके नाम से स्टेज शो ऑर्गनाइज होने लगे थे। हम भी उसके साथ-२ एक देश से दूसरे देश के सफ़र पर निकल पड़े थे।

एक दिन अचानक टी.वी. देखते हुए मेरी खुशी का ठिकाना ना रहा, जब घोषणा हुई कि कुहू को ग्रेमी अवार्ड देने का निर्णय किया गया है। उसने अपने और हमारे साथ-२ इस देश का नाम भी रौशन कर दिया था। वो तो शायद ही ज़िन्दगी में कभी ये जान पाए कि उसने क्या पा लिया है; पर उसने अपनी माँ को ये एहसास जरूर करा दिया था कि उसने अपनी बेटी के लिए जो सपना देखा था, वो गलत नहीं था। शाम को राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा अन्य गणमान्य लोगों के बधाई सन्देश भी प्राप्त हुए। मुझे ये सारा कुछ किसी स्वर्ग जैसी फ़ीलिंग दे रहा था।

आज तो उन लोगों के भी फ़ोन आ रहे थे, जो मेरी बेटी को मेरी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा ग्रहण मानते थे और सोचते थे कि मैं इसके अन्धकार में ही एक दिन घुट-२ कर मर जाऊँगी। पर मेरी बेटी ने तो अपनी आभा से उनकी आँखें चौंधिया दीं।

अचानक रेड लाइट पर गाड़ी में लगे ब्रेक से मेरी तंद्रा टूटी और मैं एक झटके में अपने अतीत से वापस आ गई। नज़र घुमाकर मैंने अपनी बेटी की ओर देखा, जो इस सब से बेखबर शहर में चारों ओर जगमग करती लाइटें देख कर खुश हो रही थी और मेरे कानों में खुशी के साज पर बजते मद्धम-२ सुर अठखेलियाँ कर रहे थे..........!!

                                

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                                                                                                             -समाप्त-



बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-२








खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-१


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शाम को डॉक्टर फ़िर आईं और मेरे चेहरे की तरफ़ देखते हुए आश्चर्यमिश्रित मुस्कान से पूछा,

“बहुत फ़्रेश लग रही हैं आप?”

“हाँ डॉक्टर! ज़िन्दगी से एक नई जंग लड़ने के लिए खुद को तैयार जो करना है।” ये कहते हुए अपने आप से फ़िर एक वादा किया, कभी घबराकर हिम्मत ना हारने का।

थोड़ी देर बाद नर्स ने मेरी बेटी को लाकर मेरे हाथों में दिया, और मुस्कुरा कर कहा,

“अब आप खुद इसे अपना दूध पिला सकती हैं। आपको अच्छा नहीं लगता था ना, बोतल में दूध निकाल कर देना?”

मैं कुछ देर तो बैठ कर उसे देखती ही रही और उसके नर्म-२ शरीर पर अपनी उँगलियाँ फ़िराती रही। उसके सिर का एक भाग कुछ फ़ूला हुआ था। मैंने नर्स की तरफ़ प्रश्नवाचक निगाहों से देखा।

“इसके ब्रेन का इस तरफ़ का हिस्सा डेमेज हुआ है, इसलिए ये इस तरह फ़ूला है।” नर्स ने मेरी आँखों में झाँकते हुए कहा।

वो शायद मेरी आँखों में दर्द ढूँढ़ रही थी। पर उसे वहाँ हौसले और आत्मविश्वास के सिवा और कुछ ना मिला। मैंने अपनी बेटी को अपने सीने से चिपटा लिया और उस सुख का अनुभव करने लगी, जिसके लिए मैं इतने दिनों से तरस रही थी।

अगले दिन मैं अपनी प्यारी सी गुड़िया ‘कुहू’ को लेकर घर आ गई। मैं खुश थी कि मेरे पति भी मेरी इस जंग में हर कदम पर मेरे साथ थे।

मैंने लोगों से मिलना-जुलना, बात करना सब बन्द कर दिया, क्योंकि सभी लोगों की ज़ुबान पर एक ही बात रहती थी,

“तुम्हारी तो ज़िन्दगी ही बरबाद हो गई। भगवान ने एक तो बेटी दी, वो भी ऐसी। इससे अच्छा तो वो इसे उठा ले। बच्चों का क्या है, और हो जाएँगे।”

मैं अपनी बेटी को ऐसी बद्दुआओं से बचा कर रखना चाहती थी। इसलिए उसे ऐसे लोगों से बचा कर रखना जरूरी था।

धीरे-२ हम लोग सामान्य ज़िन्दगी की ओर लौटने लगे। इसके बाद दौर चला फ़िज़ियोथेरेपी, एक्यूप्रेशर और होम्योपैथी का। सुबह से शाम हो जाती थी, अंग-२ थक कर चूर हो जाता था; पर ज़िन्दगी फ़िर भी आँखों में मुस्कुराती थी, जब मैं अपनी बेटी की हालत में थोड़ा सा भी सुधार देखती थी। शुरुआत में कुहू एक रक्त-माँस की बनी गुड़िया की तरह थी, जिसमें जीवन के चिन्ह के रूप में सिर्फ़ साँसों का आना-जाना और पलकों का झपकना ही था। दो-एक दिन में कभी रो देती थी, तो कभी एक-आध बार हाथ-पैर हिला देती। मैं अक्सर उसके आगे-पीछे से, उसके दायें-बायें से उसका नाम लेकर पुकारती कि कभी तो वो मेरी तरफ़ देखे, पर हमेशा निराशा ही हाथ लगती।

एक दिन अचानक मोबाइल में बजी रिंगटोन की तरफ़ उसने अपना सिर घुमाया। मेरी आँखों से आँसू की एक बूँद टपक पड़ी,

“ये म्यूजिक समझती है।” मैं मन ही मन बुदबुदाई।

बस उसी पल मुझे वो राह दिख गई थी, जिस पर मुझे आगे बढ़ते जाना था। मैंने ठान लिया था और मन ही मन दुहराया,

“मैं म्यूजिक को इसकी ज़िन्दगी बना कर छोड़ूँगी।”

बस उस दिन के बाद से जब भी मार्केट जाती, मैं अपनी कुहू के लिए कोई ना कोई म्यूजिक वाला खिलौना उठा लाती। म्यूजिकल ड्रम, ढोलक, सिंथेसाइजर, बाँसुरी और वो गाना गाने वाली गुड़िया, कितने ही तो खिलौने इकट्ठे हो गए थे उसके पास। वो कभी एक खिलौना उठाती, कभी दूसरा; दस-२ मिनट में तो मूड चेंज होता था हमारी गुड़िया रानी का।

समय धीरे-२ बीत रहा था। फ़िज़ियोथेरेपी ने अपना असर दिखाना शुरु कर दिया, अब वह अपने सहारे ५-१० मिनट बैठने लगी थी। होम्योपैथी से उसके समझने की शक्ति भी धीरे-२ बढ़ रही थी। ३ साल की होते-२ अब वह पूरी तरह अपने सहारे बैठने लगी।

एक दिन मैं उसे उसके खिलौनों के पास छोड़ कर किचन में खाना बनाने चली गई। कुछ देर बाद जब लौट कर कमरे में वापस आई, तो वो अपनी जगह पर नहीं थी। मेरा दिल जोर-२ से धड़कने लगा। पर अचानक मेरी नज़र कमरे के एक कोने पर गई; वो वहाँ पर बैठी रैक में से चप्पल, जूते निकाल-२ कर फ़ेंक रही थी। मेरी खुशी से लगभग चीख निकल गई थी,

“ये तो अपने-आप खिसकने भी लगी।”

शाम को जब मेरे पति घर आए, तो मैंने अपने हाथों से बनाए बेसन के लड्डू उनके सामने रखे; जब उन्होंने कारण पूछा तो मैंने मन्द-२ मुस्काते हुए सारी बात बताई। वो भी बहुत खुश हुए, पर उन्हें अफ़सोस था कि ये नज़ारा वो अपनी आँखों से नहीं देख पाए।

अब मेरे लिए नया माइल-स्टोन था, इसे इसके पैरों पर खड़ा करना। मैं अपनी नौकरी छोड़ चुकी थी, मेरे पति ने आर्थिक-ज़िम्मेदारी पूरी तरह से अपने कन्धों पर उठा ली थी। मैंने सब कुछ छोड़ कर अपना पूरा ध्यान अब कुहू पर केन्द्रित कर दिया था। २ साल की मेहनत के बाद मैं इसे इसके पैरों पर खड़ा कर पाई; अब तो इसने धीरे-२ चलना भी सीख लिया था। हालाँकि कदम डगमगाते थे, पर मुझे पता था जल्दी ही ये कमी भी दूर हो जाएगी।


            
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                                                                                                               ...क्रमश:


खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-३




बुधवार, 10 फ़रवरी 2016

खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-१








मेरे आँसू लगातार बहे जा रहे थे और मैं उन्हें रोकने का कोई प्रयास नहीं कर रही थी, क्योंकि मैं इन आँसुओं में अपने उन सारे दु:खों, खीजों, अपमान, तंज और लोगों द्वारा दिए गए बेचारगी के एहसास को बहा देना चाहती थी, जो पिछले अनगिनत सालों में मैंने अपने दिल पर झेले थे। पूरा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज रहा था, आज मेरी बेटी को ‘ग्रेमी अवार्ड’ मिला था; वही बेटी, जिसके पैदा होने के बाद से लगातार हर दूसरे व्यक्ति ने इसके मरने की दुआएँ माँगी थीं, ताकि मैं खुशी-२ जी सकूँ; पर मेरी खुशी तो मेरी बेटी में थी। आज उसने मेरी खुशी को मेरी पलकों पर सजा दिया था। एक सामान्य व्यक्ति के लिए ग्रेमी अवार्ड आकाश के तारे तोड़ने के समान होता है, फ़िर मेरी बेटी तो मानसिक रूप से विकलांग थी।

“ नन्दिनी, चलो तुम्हें भी स्टेज पर बुला रहे हैं,” मुझे खयालों में खोया देख मेरे पति ने मेरे कन्धे पकड़ कर मुझे हिलाया।

मैं अपने बहते आँसुओं को पोंछ कर मुस्कुराते हुए मंच की ओर बढ़ी और वहाँ पहुँच कर अपनी बेटी को चूमकर गले लगा लिया। पूरा हॉल एक बार फ़िर तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।

गाड़ी से होटल वापस लौटते हुए मेरा मन बार-२ अतीत के भँवर में हिचकोले खा रहा था। मेरे सामने हॉस्पीटल का वो दृश्य बार-२ घूम रहा था, जब मैं अपनी बेटी के जन्म के सात दिन बाद भी उसके अपनी गोद में दिए जाने का इन्तजार कर रही थी। उसे जन्म देने के बाद से ही NNICU में रखा गया था। तभी एक सीनियर रेजीडेण्ट डॉक्टर ने मेरे कमरे में प्रवेश किया और मुस्कुराते हुए पूछा,

“अब कैसी तबियत है आपकी?”

“मैं ठीक हूँ डॉक्टर, मेरी बेटी कैसी है? मैं उसे गोद में कब खिला पाऊँगी?” मेरा ध्यान मेरी बेटी से हट ही नहीं पा रहा था।

“वो अब पहले से बेहतर है। वैसे आपके कितने बच्चे और हैं?” डॉक्टर ने कुछ उत्सुकतावश पूछा।

“यही पहली है और आखिरी भी।” मैनें चहकते हुए जवाब दिया।

पर डॉक्टर के चेहरे की चमक अचानक खो गई और उन्होंने कुछ बुझे हुए स्वर में कहा,

“आपको ऐसे बच्चे के साथ इसके भाई/बहन के बारे में भी सोचना चाहिए।”

‘ऐसे बच्चे के साथ’ से क्या मतलब है आपका? क्या हुआ है मेरी बेटी को?” मैं लगभग चीखते हुए बिस्तर से उठी और काँपते हुए पास पड़े हुए सोफ़े पर गिर पड़ी।

“जन्म के समय उसके ब्रेन को प्रॉपर ऑक्सीजन नहीं मिल पाई, जिससे उसके ब्रेन का एक पार्ट डेमेज हो गया है। मेडिकल टर्म्स में इसे CP यानि ‘सेलेब्रल पैल्सी’ कहते हैं।”

“हो सकता है आपकी बेटी ज़िन्दगी में कभी चल और बैठ भी ना पाए, बोलना और समझना तो बहुत दूर की बात है।”

डॉक्टर बोले जा रही थी और मैं चेहरे पर बिना कोई भाव लिए उन्हें सुने जा रही थी। शब्द सिर्फ़ उनके मुँह से मेरे कान तक जा रहे थे, समझा तो मैंने उन्हें कुछ देर बाद था। जिसके साथ ही एक रुलाई भी मेरे अन्दर से फ़ूट पड़ी थी। बहुत कुछ था, जो एकसाथ मेरे अन्दर टूट गया था; मेरे सपने, मेरी आकांक्षाएँ और भी ना जाने कितना कुछ। बहुत देर तक मैं उस सोफ़े पर ऐसे ही बैठी रही।

अचानक ही मेरे अन्दर से ही आवाज़ आई,

“नहीं, मैं इस तरह हार नहीं मान सकती। अगर उस ईश्वर ने मेरी परीक्षा ही लेनी चाही है, तो मैं इस परीक्षा में भी सफ़ल होकर दिखा दूँगी। मैं इस तरह खुद को टूटने तो हरगिज़ नहीं दूँगी।”

कुछ देर बाद जब मेरे पति कमरे में आए, तो मुझे इस तरह सोफ़े पे बैठा देख कर शायद ये समझ गए कि मुझे सब पता चल चुका है, पर उन्होंने कुछ कहा नहीं; चुपचाप मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर मेरे पास ही बैठ गए, मैंने उनके कन्धे पर अपना सिर टिका दिया। फ़िर धीरे से पूछा,

“आपने मुझे बताया क्यों नहीं? खुद ही सारा दर्द चुपचाप सहते रहे। यहाँ तक कि अपने चेहरे से भी कुछ जाहिर नहीं होने दिया।”

“क्या कहता मैं और फ़िर जो हो गया, उसे बदला तो नहीं जा सकता ना? उस पर तुम्हारी हालत ऐसी नहीं थी कि तुम्हें कुछ बताया जाता। अब हम दोनों को साथ मिल कर ही इसकी ज़िन्दगी सँवारनी है।” मेरे पति बहुत ही शांत-भाव से मुझे समझा रहे थे। मैं उनके इसी गुण की तो कायल थी।

फ़िर उन्होंने मुझे सहारा देकर बिस्तर पर लिटा दिया और मेरे लिए गिलास में जूस निकालने लगे।


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खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-२



शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

वो सुबह जरूर आएगी..!






कुछ दिन पहले मैं अपनी बेटी के स्कूल पैरेन्ट्स-टीचर्स मीटिंग में गई थी। वहाँ मेरी मुलाकात मान्या और शशांक से हुई। दोनों भाई-बहन थे। दोनों ने मिलते ही मेरा दिल चुरा लिया। अब आप सोच रहे होंगे, ऐसी क्या खास बात थी दोनों में? जब मैं ये कहूँगी बहुत प्यारी बौंडिंग थी दोनों में, बहुत ही प्यारी अंडरस्टैंडिंग थी उन दोनों में और वे दोनों एक-दूसरे के प्रति बहुत ही ज्यादा प्यार और अपनापन जता रहे थे। आप अब भी यही सोच रहे होंगे कि फ़िर भी ऐसी क्या खास बात हो गई? अक्सर भाई-बहनों का प्यार ऐसा ही होता है। खास बात वो है, जो अब मैं आपको बताने जा रही हूँ, शायद आप चौंके भी। भाई की उम्र १६ वर्ष थी और वो पूरी तरह दूसरों पर आश्रित था। वो एक `Mentally-Challenged Child’ था। बहन की उम्र यही कोई १० वर्ष थी, पर वो जिस तरह अपने भाई की देखभाल कर रही थी, तो कोई भी उसे उसकी माँ होने का धोखा खा सकता था। .. :))

अब मुद्दे की बात पर आते हैं। यहाँ मेरा मकसद आपको महज इन भाई-बहन के प्यार से परिचित कराना नहीं था, बल्कि उस रवैये की ओर आपका ध्यान खींचना था, जो समाज विकलांग / अपाहिज (बच्चों / व्यक्तियों) के प्रति दिखाता है। समाज के सभी लोग इस तरह के लोगों से एक दूरी बना कर रखना पसन्द करते हैं और अगर कभी करीब आते भी हैं, तो सिर्फ़ ‘सहानुभूति’ जताने हेतु। मैंने तो अक्सर लोगों को विकलांग / अपाहिज लोगों के प्रति बेचारगी प्रदर्शित करते ही देखा है और कभी-२ तो ये लोग इनके प्रति घृणा का प्रदर्शन करने से भी बाज नहीं आते। मैं यहाँ पर ‘बर्फ़ी' फ़िल्म के एक दृश्य का जिक्र करने से खुद को रोक नहीं पा रही हूँ, जब प्रियंका चोपड़ा के घर पर पार्टी चल रही होती है। प्रियंका चोपड़ा ने इस फ़िल्म में ‘ऑटिज़्म’ पीड़ित लड़की का किरदार निभाया था। फ़िल्म के दृश्य में वो लड़की वहाँ गाये जा रहे एक गाने को पसन्द आने पर खुद भी जोर-२ से उसे गाने लगती है; जिसे सुनकर वहाँ उपस्थित बाकी लोग जोर-२ से हँसने लगते हैं। ये देख कर लड़की के माता-पिता शर्मिन्दा हो जाते हैं और वहीं दूसरी तरफ़ वो लड़की जार-२ रोती हुई, यही कहती रह जाती है कि “हँसो मत- हँसो मत”...। बाद में उस लड़की को उसके नाना के घर भेज दिया जाता है।





मेरे मन में अक्सर ये ख़्याल आता है कि जब हमें सामर्थ्यवान होते हुये प्यार और अटेंशन की इतनी आवश्यकता होती है, तो उन्हें कितनी होती होगी; जबकि वो हम पर कई तरह से आश्रित भी होते हैं। आज जब मैंने उन भाई-बहन को देखा, तो यही बात बार-२ दिमाग में घूमती रही कि क्यों ना हम समाज को उनके प्यार की तरह ही खूबसूरत बना दें। जहाँ किसी भी भेदभाव से परे सिर्फ़ प्यार ही प्यार बिखरा दिखाई दे। मैं तो उन माता-पिता की भी प्रशंसा करना चाहूँगी, जिन्होंने अपनी बच्ची को अपने भाई के साथ इतने प्यार से पेश आना सिखाया। शशांक बोल नहीं पाता, पर फ़िर भी वो सबको बार-२ अपनी टूटी-फ़ूटी भाषा में यही कह रहा था कि “ये मेरी बहन है मान्या। ये मुझे बहुत प्यार करती है।”

मैं उन दोनों की फ़ोटो भी खींच कर लाई, जो ऊपर मैंने लगाई है। अपने भाई के साथ जाते हुये मान्या मुझे ‘बाय-बाय’ कर रही थी और मैं सिर्फ़ यही सोच रही थी कि क्या चाहते हैं ये लोग हमसे, सिर्फ़ यही ना कि.....

“चार कदम बस चार कदम, चल दो ना संग तुम मेरे”.....


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रविवार, 7 जून 2015

मैं और मेरे पापा-३ (पापा की यादों का कोलाज़)



                          पापा के ६०वें जन्मदिन पर खींची गई फ़ोटो...


आज ७ जून को पापा का जन्मदिन है। अगर आज वो होते और मैं हमेशा की तरह सुबह-२ उन्हें फ़ोन करती, तो उनका पहला वाक्य यही होता, “अरे! मुझे तो याद ही नहीं था, किसी ने बताया भी नहीं।” अपने जन्मदिन पर भी पूरे दिन इन्तजार करने के बाद रात को जब खुद ही मैं फ़ोन करके बताती, तब भी वो ऊपर वाले वाक्य को ही रिपीट करते थे। ७ अंक (७,१६,२५ तारीख) को पैदा होने वाले अच्छे जीवन-साथी होते हैं, ये तो पता था; पर बहुत अच्छे पापा भी होते हैं, ये नहीं पता था।

इन गर्मियों में जैसे-२ पारा चढ़ रहा है, वैसे-२ पापा की यादों ने भी मेरे मन-मस्तिष्क में दस्तक देनी शुरू कर दी है। उन्हें गर्मी बहुत लगती थी या सच कहें तो उन्हें सभी मौसम बहुत परेशान करते थे, इसीलिए वो कहीं आते-जाते भी नहीं थे। अपना घर ही उन्हें सबसे प्यारा था। मैं भी उन्हीं पर गई हूँ, कहीं भी घूमना-फ़िरना मुझे पसन्द नहीं। शायद ये हम दोनों के ‘शनि’ महाराज के नक्षत्र में पैदा होने का फ़ल है। हाँ, तो मैं गर्मी की बात कर रही थी, गर्मी देवी उन्हें बहुत प्रताड़ित करती थीं और सजा मैं भुगतती थी। मैं रोज सुबह पूरे घर का पोंछा लगाती और वो रोज दोपहर को अपने कमरे में पानी भरकर उसे दाग-धब्बों वाला बना देते और उस पर तर्क ये कि चाहे मैं गर्मी से मर जाऊँ, पर तेरा कमरा चमकते रहना चाहिए। उस कमरे को वैसा छोड़ा भी नहीं जा सकता था, क्योंकि वो हमारे घर की ‘बैठक’ ( ड्राइंग-रूम ) थी। उनके लिए रोज नहाने के लिए हैण्डपम्प से ठण्डा पानी भी खींचना पड़ता था, वरना वो मेरे नहाने के पानी पर कब्जा कर लेते थे; बाकी लोग तो टंकी के गुनगुने पानी से नहा कर संतुष्ट हो जाते थे। .. :))

शर्बत से सम्बन्धित एक मजेदार किस्सा है, जिसे आप सब से शेयर करती हूँ। गर्मियों में उन्हें रोज़ कम-अस-कम ३-४ बार शर्बत पीना होता था, जो कोई मुश्किल काम नहीं था मेरे लिए; पर मुझे चीनी घोलने के लिए देर तक चम्मच हिलाना पसन्द नहीं था। मैंने सरलता के लिए एक आइडिया निकाला; शुगर-सिरप बनाकर, उसी में नींबू निचोड़ कर और बोतल में भरकर फ़्रिज़ में रख दिया। बस अब उसमें पानी भर मिलाना था और शर्बत तैयार। मैं बहुत खुश थी, पर मुझसे भी ज्यादा खुश पापा थे; कहने लगे, अब तो तेरी भी जरूरत नहीं, मैं खुद ही बना लूँगा। वैसे मुझे शाबासी भी मिली, इस आइडिया पर। पर... मेरी खुशी एक दिन भी नहीं टिक पाई, क्योंकि उन्होंने वो एक लीटर शुगर-सिरप एक दिन में ही खत्म कर दिया, १०-१५ गिलास शर्बत पीकर। पहले तो मैंने उन पर खूब गुस्सा किया, जी भर कर, फ़िर मन-मसोस कर एक डिब्बे में चीनी पीस कर रख दी। .. :((

वो अपने ( और हमारे भी ) शरीर के आराम का बहुत ध्यान रखते थे; उनका कहना था, ‘ऐसे रुपये कमाने का क्या फ़ायदा कि शरीर कष्ट में रहे।’ ऐसा नहीं कि वो आराम-तलब थे, बल्कि शायद इसलिए कि उन्होंने अपनी ज़िन्दगी में बहुत काम किया था। हम लोगों के आराम में बाधा इसलिए नहीं पड़ने देते थे कि कहीं पढ़ाई बाधित ना हो। इन्वर्टर हमारे घर तब आ गया था, जब पहली बार हम उससे परिचित हुए थे, यानि करीब २० साल पहले; जिस समय वो काफ़ी मँहगा और मेन्टीनेंस ( देखभाल ) के मामले में काफ़ी दु:खी करने वाला था। चूँकि यू.पी. में बिजली बमुश्किल आती थी, इसलिए घर के हरेक व्यक्ति के लिए अलग-२ बैटरी वाला पंखा भी था।
कूलर का भी हमने ‘वो’ वाला वर्जन देखा था, जिसके अन्दर टेबल-फ़ैन रखकर चलाया जाता था। सबसे काबिले-तारीफ़ बात ये थी उस कूलर में कि पानी की सप्लाई के लिए कूलर के ऊपर बनी एक छेदों वाली ट्रे में हर १५ मिनट में २ मग पानी भर कर डालना पड़ता था। .. :))

ये सब सुन कर आप ये ना सोचें कि हम लोग बहुत पैसे वाले थे। मेरे पापा एक ‘ईमानदार’ सरकारी नौकर थे और इसलिए हम एक ‘निम्न मध्यमवर्गीय’ परिवार से ताल्लुक रखते थे। उनके इन्हीं सब खर्चों को देखकर मम्मी अक्सर नाराज होकर गुस्सा करतीं, तो पापा का एक ‘निश्चित’ डायलॉग था, जो हर बार दुहराया जाता और मेरा ये मनपसन्द डायलॉग था.....
“जितने का खर्च नहीं हुआ, उतने का तो तुमने मेरा खून जला डाला...।” .. :))

पापा.....  पापा.....  पापा.....
यादें.....  यादें.....  यादें.....
ज़िन्दगी खत्म हो जायेगी मेरी, पर आपकी यादें नहीं.....

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मंगलवार, 19 मई 2015

रुका हुआ सा दर्द...! (कहानी)




अचानक दरवाजे की घंटी बजी.....

वो पिछले एक घण्टे से सोने का प्रयास कर रही थी; पर थकान की वजह से शायद नींद नहीं आ रही थी।

पोस्टमैन होगा शायद, कहकर वो अनमने ढंग से दरवाजे की ओर बढ़ी।

दरवाजा खोलकर देखा। पोस्टमैन ही था। एक लिफ़ाफ़ा डालकर गया था। उसने उलट-पुलट कर देखा, उस पर भेजने वाले का कहीं कोई जिक्र नहीं था। हालाँकि पत्र उसके पिता के नाम था, पर वो चाहकर भी उसे खोलने से खुद को रोक ना पाई।

जैसे ही उसने लिफ़ाफ़ा खोला, अन्दर से एक तस्वीर निकली, जिसे देखकर उसका चेहरा तमतमा गया। गुस्से में आकर वो तस्वीर फ़ाड़ना ही चाहती थी कि कुछ सोच कर रुक गई। आखिर कितनी तस्वीरें फ़ाड़ेगी वो। क्या ऐसा करने से वो रुक जाएगा, जिसके होने मात्र की कल्पना से ही वो सिहर जाती है।

रह-रह कर उसे एक ही बात कचोटती है; क्या एक पुरुष के लिए स्त्री मात्र उसका घर सँभालने वाली और बच्चे पैदा करने वाली मशीन भर है? क्या पति की शारीरिक और मानसिक जरूरतों का ध्यान रखना केवल स्त्री का फ़र्ज़ है? क्या प्यार के मायने केवल औरत के लिए हैं?
क्या, क्या और ना जाने कितने क्या? उसका सिर इस भयंकर गर्मी में फ़टने को हो आया। वह पानी पीने रसोई में जाती है।

वहाँ मौजूद माँ इशारे में उससे परेशान होने की वजह पूछती है। जब से माँ को पैरालिसिस का अटैक हुआ है, उसका दायाँ हाथ और पैर बिल्कुल काम नहीं करता। हालाँकि वो खुद को घसीट-२ कर अपने सारे काम कर लेती है। किसी को अपनी वजह से परेशान करना सीखा ही नहीं जो उसने। यही वजह थी कि पिता की दूसरी शादी की बात पर उसने चुपचाप सहमति में सिर हिला दिया था। हालाँकि केतकी जानती थी कि उस दिन के बाद से माँ का मन हर रोज कितना टूटता है।

माँ ने भले ही इस बात पर सहमति दे दी थी, पर केतकी रोज कितना लड़ती थी अपने पिता से इसके विरोध में। पर उन्होंने तो जैसे जिद ही ठान ली थी दूसरी शादी की।

अब कैसे बताती माँ को कि जिस लिफ़ाफ़े को वो फ़ेंक कर आई है, उसमें पिता की दूसरी शादी का रिश्ता आया है। वो पिता जिसके सुख की खातिर माँ ने खुद को होम कर दिया, पर जो आज भी इस बात से बेखबर हैं कि किस तरह माँ उनके मुँह से दो प्यार भरे बोल सुनने को तरसती रहती है।

केतकी के मन में भले ही हाहाकार मचा हुआ है, पर वो अन्दर ही अन्दर एक निर्णय ले चुकी है। भरी दोपहर में वो बैग टाँगकर निकल पड़ती है, खुद के और माँ के लिए एक नए आशियाने की तलाश में..........!

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