गुरुवार, 31 मार्च 2016

कहीं हम डार्विन के वंशज तो नहीं हैं?









क्या आपको नहीं लगता कि हमारा (So called) समाज डार्विन के प्रचलित सिद्धान्त ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ (Survival of the fittest) पर कुछ ज्यादा ही यकीन करता है और लगभग अट्टाहस करता हुआ ऐलान करता है कि ‘जो डर गया, वो मर गया’। सच कहूँ, तो आप यकीन नहीं मानेंगे कि यही समाज फ़िर उन लोगों को डराने से बाज नहीं आता, जो उनके सामाजिक खाँचे में फ़िट नहीं बैठते। कभी-२ तो ऐसा लगता है जैसे डार्विन अपने ही वंशज छोड़ गये हैं, अपने सिद्धान्त की प्रामाणिकता को पुष्ट करने के लिए।

असुन्दर तथा शारीरिक एवं मानसिक रूप से अक्षम लोगों के सम्मान और उनके अधिकारों के बारे में बात किए हुये अभी चन्द दिन ही बीते होंगे कि एक नया मुद्दा सामने आ गया समलैंगिकता का। हम लोगों को नकारने और दुत्कारने में जितनी तत्परता दिखाते हैं, उतनी ही तत्परता से बाहें फ़ैलाकर लोगों को गले लगाने की पहल क्यों नहीं करते? क्या आपको नहीं लगता कि समाज की अनेक समस्याओं की जड़ में एक ही बात विद्यमान है कि हम मन से ज्यादा प्रमुखता तन यानि शरीर को देते हैं। अगर किसी का शरीर किसी व्याधि से ग्रस्त है या आपके सौन्दर्य के पैमाने से जरा भी बाहर है, तो आप उसे नकारने में देर नहीं लगाते; परन्तु आपकी इस कुत्सित सोच का क्या, जो आपके मन को कुरूप बना रही है।

हम लोगों के लिए सहूलियतें पैदा नहीं करना चाहते, बल्कि उनके लिए बाधाएँ खड़ी करने के नये-२ तरीके ईज़ाद करते रहते हैं। हम लोगों का उपहास करना जानते हैं, उन पर उँगली उठाना जानते हैं; परन्तु उनकी उँगली पकड़ कर दो कदम उनके साथ नहीं चल सकते, उन्हें प्यार से गले नहीं लगा सकते।

वैसे कुछ लोग ऐसे भी होंगे, जो ये सब पढ़ने के बाद सोच-२ कर खुश होंगे व गर्व महसूस करेंगे कि वे कम-अस-कम डार्विन के वंशज तो प्रमाणित नहीं हुये। परन्तु क्या ये उनकी नैतिक ज़िम्मेदारी नहीं, कि वे समाज को इन डार्विन के वंशजों से मुक्त करायें? वे समाज में बदलाव तो चाहते हैं, परन्तु सामाजिक बहिष्कार की वजह से चुप रहते हैं। अगर आप बदलाव चाहते हैं, तो बदलाव करने की हिम्मत दिखायें। पहल करें, उसके होने का इन्तज़ार ना करें; क्योंकि मसीहा जन्म नहीं लेते, समाज में से ही पैदा होते हैं।



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