सोमवार, 20 मई 2013

दुलारी (कहानी)





                (भारतीय सामाजिक व्यवस्था पर एक कटु व्यंग्य)

जिस दिन ‘वो’ विदा होकर आई और उसका तांगा ससुराल की ड्योढ़ी पर रुका। मुहल्ले भर के बच्चों ने उसे घेर लिया। सभी उसकी एक झलक भर पाने को बेताब थे। कोई उसके सुन्दर हांथों की तारीफ़ कर रहा था, तो कोई उसके गोरे-२ पैरों की, साथ में चेहरा देखने की मशक्कत भी जारी थी सभी की।

हटो-२ नज़र ना लगा देना मेरी बहुरिया को... मुझे आरती की रसम पूरी करने दो।.......... उसकी सास ने बड़े ही लाड़ से कहा।

हाँ-२ ‘हूर की परी’ है ना तुम्हारी बहुरिया, जो नज़र लग जाएगी.......... एक पड़ोसन ने उलाहना देते हुए कहा।

पर जो देखता था, देखता ही रह जाता था, बला की खूबसूरती थी उसमें। सुन्दरता के साथ गुणों की खान भी थी वो। थोड़े ही दिनों में अपने नाम के अनुरूप ही पूरे मुहल्ले भर की दुलारी बन गई वो। ‘दुलारी’ हाँ, यही नाम तो था उसका।

वक्त हमेशा एक सा नहीं रहता। १० साल बीत गये थे उसकी शादी को। अब वो हर एक की आँखों में खटकने लगी थी। कोई उसका दु:ख नहीं समझता था, हर किसी को ताने देने आते थे बस। उसके हर बच्चे की जन्म के कुछ महीनों बाद किसी ना किसी वजह से मृत्यु हो जाती थी। लोगों की नज़र में अब वो एक डायन बन चुकी थी, जो अपने ही बच्चों को खा जाती है।

जब किसी लड़की की मुहल्ले में शादी होती और विदा के वक्त आम रस्म के मुताबिक वो सबसे गले मिलती, तो दुलारी भी मन में उस लड़की के लिए दुआएँ लिए लपककर आगे बढ़ती, पर हमेशा ही कुछ लोगों की आवाजें उसके बढ़ते कदम रोक लेतीं..........

अरे.....! इसके गले मत लगना। ये डायन तुम्हारी गोद भी सूनी कर देगी।

कुछ देर वहाँ खड़ी रहने के बाद चुपचाप घर वापस चली आती और एक कोने में बैठकर सुबकने लगती। उसे सुबकता देख सास (जिसने अपने प्यार की छाँव हमेशा उसके सिर पर बनाये रखी) उसे डाँटती,

‘क्यों जाती है वहाँ? जब जानती है उनके व्यवहार को।’
और प्यार से उसका सिर गोद में रखकर सहलाने लगती।

पर क्या करती दुलारी। दिल में प्यार ही इतना भरा था। जब भी कोई लड़की पहली बार मायके आती या किसी के यहाँ सन्तान होती, तो भागी-२ पहुँच जाती वहाँ पर। ये जानते हुए भी कि दरवाजे से ही वापस लौटना पड़ेगा।

धीरे-२ वक्त बीतता रहा। ना तो मुहल्ले वाले ही बदले और ना ही दुलारी।

जिस दरवाजे पर उसकी डोली उतरी थी, आज उसी दरवाजे पर उसकी अर्थी रखी थी।

लाल जोड़े में सजी-सँवरी, पूरे साजो-श्रंगार के साथ। चेहरा दमक रहा था उसका। बिल्कुल चाँद का टुकड़ा लग रही थी दुलारी।

‘सुहागिन मरी है।’

‘बड़े भागों वाली है।’

‘अरे इसके चरण छूकर आशीष ले लो।’

‘इसके हाथ से उतार कर एक-२ चूड़ी पहन लो।’

‘इसकी माँग से सिन्दूर लेकर अपनी माँग में भर लो।’

सभी मुहल्ले वाले आपस में बातें कर रहे थे...............................।

जब अर्थी को लेकर चले, तो सभी सुहागनें एक-२ कर उसकी अर्थी के नीचे से निकलने लगीं।

आज ‘वो’ फ़िर से सबकी ‘दुलारी’ बन गई थी...............
                    
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