सोमवार, 15 जुलाई 2013

सत्यं शिवं सुन्दरम






बहुत पहले मैंने एक फ़िल्म देखी थी ‘मेरी सूरत, तेरी आँखें’। इस फ़िल्म ने मेरे मन पर एक गहरा प्रभाव छोड़ा और सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या तन की सुन्दरता इतनी आवश्यक होती है, जिसके ना होने पर अपने साथ छोड़ जाते हैं। और मन की सुन्दरता ? क्या वह आवश्यक नहीं ?

एक कहावत हम सब ने सुनी होगी कि ‘सुन्दरता देखने वाले की आँखों में होती है’। पर ये शायद कुछ ही लोगों का सच है। वरना ज्यादातर लोगों के लिए वही सुन्दर होता है, जो वास्त्विक रूप में आकर्षक है। पर क्या इस सुन्दरता और आकर्षण का वास्तविक रूप में वही मूल्य है, जो हम आँकते हैं ? क्या मानवीय गुण और आत्मिक सुन्दरता कहीं ज्यादा मूल्यवान नहीं ? फ़िर क्यों हम ज़िन्दगी के विभिन्न मोड़ों पर इनकी उपेक्षा कर देते हैं।

बाहरी सुन्दरता माया की तरह महाठगिनी है, जिसकी ऊपरी चमक-दमक और क्षणिक सौन्दर्य से हम प्रभावित हो जाते हैं। इस क्षण-भंगुर सौन्दर्य में ही हम अपनी खुशी को ढूँढ़ने का प्रयास करते हैं। पर वास्तविक सौन्दर्य जो मानवीय गुणों और आत्मिक सुन्दरता में होता है, उसे हम देख ही नहीं पाते।

मैं ये नहीं कहती कि शारीरिक सुन्दरता कोई मायने नहीं रखती, पर मानवीय गुणों के अभाव में ये बेमानी है। ठीक उसी तरह जैसे गुलाब का पौधा सुन्दर दिखता है, पर वो तुलसी का स्थान कभी नहीं ले सकता।

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मंगलवार, 18 जून 2013

लप्रेक (लघु प्रेम-कथा)






आरोही जब भी कोई शिकायत करती पलाश से; जवाब में वो कोई फ़िल्मी गीत गाने लगता या किसी शायर की कोई पंक्तियाँ..........। आरोही भी मुस्कुरा कर उसकी तरफ़ देखने लगती और सोचती..........काश..! ज़िन्दगी के हर सवाल का जवाब इतना ही आसान होता, किसी गीत या कविता की तरह और ज़िन्दगी इतनी ही प्यारी होती, बिल्कुल तुम्हारी तरह..........!!

                  
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सोमवार, 20 मई 2013

दुलारी (कहानी)





                (भारतीय सामाजिक व्यवस्था पर एक कटु व्यंग्य)

जिस दिन ‘वो’ विदा होकर आई और उसका तांगा ससुराल की ड्योढ़ी पर रुका। मुहल्ले भर के बच्चों ने उसे घेर लिया। सभी उसकी एक झलक भर पाने को बेताब थे। कोई उसके सुन्दर हांथों की तारीफ़ कर रहा था, तो कोई उसके गोरे-२ पैरों की, साथ में चेहरा देखने की मशक्कत भी जारी थी सभी की।

हटो-२ नज़र ना लगा देना मेरी बहुरिया को... मुझे आरती की रसम पूरी करने दो।.......... उसकी सास ने बड़े ही लाड़ से कहा।

हाँ-२ ‘हूर की परी’ है ना तुम्हारी बहुरिया, जो नज़र लग जाएगी.......... एक पड़ोसन ने उलाहना देते हुए कहा।

पर जो देखता था, देखता ही रह जाता था, बला की खूबसूरती थी उसमें। सुन्दरता के साथ गुणों की खान भी थी वो। थोड़े ही दिनों में अपने नाम के अनुरूप ही पूरे मुहल्ले भर की दुलारी बन गई वो। ‘दुलारी’ हाँ, यही नाम तो था उसका।

वक्त हमेशा एक सा नहीं रहता। १० साल बीत गये थे उसकी शादी को। अब वो हर एक की आँखों में खटकने लगी थी। कोई उसका दु:ख नहीं समझता था, हर किसी को ताने देने आते थे बस। उसके हर बच्चे की जन्म के कुछ महीनों बाद किसी ना किसी वजह से मृत्यु हो जाती थी। लोगों की नज़र में अब वो एक डायन बन चुकी थी, जो अपने ही बच्चों को खा जाती है।

जब किसी लड़की की मुहल्ले में शादी होती और विदा के वक्त आम रस्म के मुताबिक वो सबसे गले मिलती, तो दुलारी भी मन में उस लड़की के लिए दुआएँ लिए लपककर आगे बढ़ती, पर हमेशा ही कुछ लोगों की आवाजें उसके बढ़ते कदम रोक लेतीं..........

अरे.....! इसके गले मत लगना। ये डायन तुम्हारी गोद भी सूनी कर देगी।

कुछ देर वहाँ खड़ी रहने के बाद चुपचाप घर वापस चली आती और एक कोने में बैठकर सुबकने लगती। उसे सुबकता देख सास (जिसने अपने प्यार की छाँव हमेशा उसके सिर पर बनाये रखी) उसे डाँटती,

‘क्यों जाती है वहाँ? जब जानती है उनके व्यवहार को।’
और प्यार से उसका सिर गोद में रखकर सहलाने लगती।

पर क्या करती दुलारी। दिल में प्यार ही इतना भरा था। जब भी कोई लड़की पहली बार मायके आती या किसी के यहाँ सन्तान होती, तो भागी-२ पहुँच जाती वहाँ पर। ये जानते हुए भी कि दरवाजे से ही वापस लौटना पड़ेगा।

धीरे-२ वक्त बीतता रहा। ना तो मुहल्ले वाले ही बदले और ना ही दुलारी।

जिस दरवाजे पर उसकी डोली उतरी थी, आज उसी दरवाजे पर उसकी अर्थी रखी थी।

लाल जोड़े में सजी-सँवरी, पूरे साजो-श्रंगार के साथ। चेहरा दमक रहा था उसका। बिल्कुल चाँद का टुकड़ा लग रही थी दुलारी।

‘सुहागिन मरी है।’

‘बड़े भागों वाली है।’

‘अरे इसके चरण छूकर आशीष ले लो।’

‘इसके हाथ से उतार कर एक-२ चूड़ी पहन लो।’

‘इसकी माँग से सिन्दूर लेकर अपनी माँग में भर लो।’

सभी मुहल्ले वाले आपस में बातें कर रहे थे...............................।

जब अर्थी को लेकर चले, तो सभी सुहागनें एक-२ कर उसकी अर्थी के नीचे से निकलने लगीं।

आज ‘वो’ फ़िर से सबकी ‘दुलारी’ बन गई थी...............
                    
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मंगलवार, 5 मार्च 2013

हेल्थ पॉलिसी लेना कितना जरूरी ?







हमारे एक परिचित आजकल बहुत परेशान रहते हैं, वो इतना टूट गये हैं कि ज़िन्दगी से ही मुख मोड़ लिया है उन्होंने। बार-२ एक ही बात उन्हें झकझोरती है कि क्यों नहीं उन्होंने हमारी बात मान ली थी, जो हमने उनसे २ साल पहले कही थी। हमने उन्हें Health Insurance कराने की सलाह दी थी, जो उन्होंने हँसते हुए यह कहकर सिरे से ही नकार दी थी कि हमें इसकी क्या जरूरत है। हमारे घर में तो किसी को बुखार भी आने से पहले दो बार सोचता है। बेकार में ही हर साल इतने रूपये बरबाद करने से कोई फ़ायदा ?

एक वो दिन था और एक आज का दिन है। कुछ महीने पहले पता चला कि उनकी पत्नी को कैंसर है और आखिरी स्टेज़ है। ऑपरेशन में ४ लाख रूपये खर्च हो गये। उसके बाद भी ना तो उनकी पत्नी ही ठीक हुईं और ना ही रूपये का बेसाख्ता खर्च होना बन्द हुआ। कुछ लोगों के लिए ४ लाख रूपये ज्यादा बड़ी रकम नहीं होगी, पर उस आम इन्सान का क्या, जिसकी सालाना आय ही १ लाख रूपये मुश्किल से होती हो और बचत १०,००० से भी कम।

उनके पास आज अफ़सोस करने के सिवाय और कोई चारा नहीं, परन्तु क्या हम उनसे कोई सीख नहीं ले सकते। वैसे अगर बारीकी से देखा जाए, तो इसमें सिर्फ़ उनकी ही गलती नहीं, गलती हमारी सरकार की भी है, जो हेल्थ पॉलिसी के प्रति लोगों को जागरुक करने में कोई कदम नहीं उठाती। अन्य बड़े देशों जैसे- अमेरिका, रूस, जर्मनी, ब्रिटेन आदि में तो आप बिना अपना इंस्योरेंस कराये, वहाँ बसने की सोच भी नहीं सकते।

मुझे भी इसका ज्ञान आज से २ साल पहले हुआ, जब अपनी बेटी को एड्मिट कराने के लिए हॉस्पीटल ले गई और उनका मुझसे पहला सवाल ये था कि क्या आपके पास कोई हेल्थ पॉलिसी है? और मेरा जवाब ना में होने पर उनका कहना था कि फ़िर तो सारा खर्च आपको खुद ही करना होगा। उस समय भी मुझे इसकी उपयोगिता का अहसास नहीं था। पर धीरे-२ जब खर्च बढ़कर ७ लाख रूपये हो गया और हम सिर से पैर तक कर्ज़ में डूब गये; तब हमें ये अहसास हुआ कि हमसे कितनी बड़ी गलती हो गई। पर शायद ये गलती हमारी नहीं थी, क्योंकि हमें तो इसके बारे में पता ही नहीं था। हमने हॉस्पीटल से ही पॉलिसी के बारे में जानकारी एकत्रित की और वहाँ से लौटते ही पूरे परिवार का Health Insurance करा लिया।

आप में से कइयों के मन में ये सवाल उठ सकता है कि प्राइवेट हॉस्पीटल जाने की जरूरत ही क्या है? सरकारी अस्पताल भी तो हैं, जहाँ कोई पैसा खर्च नहीं होता; तो मैं उन लोगों से सिर्फ़ यही कहना चाहूँगी कि शायद आप सरकारी अस्पतालों की हालत के बारे में नहीं जानते और AIIMS जैसे बड़े अस्पतालों में तो इतनी भीड़ होती है कि नम्बर आते-२ ही महीनों लग जाते हैं। वैसे भी अगर वहाँ बेड खाली ना हो, तो वहाँ से वापस भेज दिया जाता है। जहाँ तक इमरजेंसी की बात है, तो उस समय मरीज की हालत को देखते हुये दूरी को प्राथमिकता दी जाती है ना कि प्राइवेट या सरकारी अस्पताल को; अर्थात्‌ जो अस्पताल सबसे नजदीक हो, वहाँ मरीज को ले जाया जाता है।

हाँ, तो मैं बात कर रही थी हेल्थ पॉलिसी की। हॉस्पीटल से लौटने के बाद मैंने अपने सभी परिचितों को इस बारे में जागरूक किया और अब इस पोस्ट के माध्यम से आप सभी लोगों तक ये बात पहुँचाने की कोशिश कर रही हूँ। सिर्फ़ ६,००० रू० प्रतिवर्ष खर्च करके आप स्वास्थ्य-सम्बन्धी अचानक घटने वाली आपदाओं से स्वयं को मुक्त रख के खुश रह सकते हैं; और ये ६,०००/- केवल एक व्यक्ति का नहीं, पूरे परिवार का Insurance है। आप इसे प्रति-व्यक्ति का भी करा सकते हैं। वैसे अलग-२ हैसियत और अलग-२ जरूरत के मुताबिक कई तरह के प्लान मार्केट में उपलब्ध हैं, जिसकी जानकारी आप policybazar.com पर जाकर ले सकते हैं और Toll Free No. से आप कॉल भी कर सकते हैं। वे बड़े ही धैर्यपूर्वक आपको पूरी जानकारी देते हैं। वैसे Apollo Munich और ICICI का Family Floater आम मध्यम वर्ग के लोगों के बीच काफ़ी लोकप्रिय है।

वैसे मैं सरकार और समाजसेवी संस्थाओं से आग्रह करूँगी कि वे लोगों के बीच हेल्थ पॉलिसी के प्रति जागरूकता पैदा करें और उन्हें एक स्वस्थ जीवन जीने के लिए प्रेरित करें।

तो फ़िर मिलते हैं, कुछ नए विचारों एवं नई जानकारियों के साथ। तब तक के लिए अलविदा दोस्तों.....।   :) 

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शनिवार, 1 दिसंबर 2012

इतना बेफ़िक्र भी मत हो ज़िन्दगी...!







किसी का जरा सा लालच और हम में से ही कुछ लोगों की ज़रा सी बेफ़िक्री कितनी बडी घटना और तबाही का वायस हो सकती है, यह अभी हाल की ही एक घटना से प्रकाश में आया है। एक प्राइवेट हास्पीटल की एक नर्स के लालच से एक हँसता-खेलता परिवार तबाह हो गया। वह नर्स हास्पीटल के ब्लड-बैंक में तैनात थी और पैसों के लालच मे जाँच-प्रक्रिया से अस्वीकृत हुये रक्त को भी मरीजों के लिए दे देती थी।

उसके इस लालच का शिकार हुआ एक परिवार; और कुछ ही दिनों में हँसता-खेलता परिवार मौत के मुँह में समा गया।

इस परिवार में पति-पत्नी, उनकी तीन पुत्रियाँ और एक पुत्र था। पत्नी की पहली गर्भावस्था के समय रक्त चढाया गया, जिससे उसमें एड्स के वायरस पहुँच गए। उसके द्वारा परिवार के सभी सदस्यों तक एड्स का दानव पहुँच गया, पर उनकी बेफ़िक्री की ज़िन्दगी ने उन्हें इसकी खबर नहीं होने दी।

ज़िन्दगी की भयानकता जब सामने आयी, तो पूरे परिवार को लील कर ही मानी। एक दिन अचानक पत्नी का चेहरा अजीब तरह के छालों से भर गया। हास्पीटल में जाँच से पता चला कि उसे एड्स है और अन्तिम स्टेज है; अगले ही दिन पुत्र के साथ भी यही घटना हुई और जाँच के बाद सभी को एड्स होने की पुष्टि हुई और कुछ ही दिन बाद पत्नी और पुत्र की मौत हो गई, क्योंकि वे अन्तिम स्टेज पर थे।

पिता और तीनों पुत्रियों ने इस गम से उबरकर अपना इलाज़ प्रारम्भ किया और ज़िन्दगी से दो-२ हाथ करने की ठान ली। हौसले की प्रतिमूर्ति था पूरा परिवार। परन्तु समाज को उनकी ये ज़िन्दादिली रास नहीं आई और वही हुआ जो एक “So called Society’’ से अपेक्षा की जा सकती है।

तीनों बच्चियों को स्कूल से निकाल दिया गया, क्योंकि साथियों ने साथ बैठने से और गुरुओं ने ग्यान देने से इन्कार कर दिया था। रिश्तेदारों ने भी साथ छोड़ दिया (जो कि ऐसे वक़्त पर हमेशा ही अकेला छोड़ देते हैं)। हद तो तब हो गई, जब बड़ी बेटी के प्रेमी ने भी (जिसके लिए कभी वो परी समान हुआ करती थी) उसे ठुकरा दिया। जब प्यार से थामने वाला हाथ दगा कर जाये, तो इन्सान के सारे हौसले पस्त हो जाते हैं और यही हुआ उस लड़की के साथ।

वो शायद जानती थी कि उसके बाद उसकी बहनें इस समाज के भेड़ियों का सामना नहीं कर पाएँगी, पापा शायद कर लें। उसने अपनी बहनों को दवा की जगह ज़हर देकर खुद भी मौत को गले लगा लिया; शायद सुकून से मरने के लिये, जीना तो उनकी किस्मत में था ही नहीं शायद।

स्तब्ध हैं ना.....?? देखकर कि किस तरह ये समाज हौसलों को तोड़ने की क्षमता रखता है। सँवारना कब सीखेंगे हम? शायद कभी नहीं। तो क्या कहते हैं आप? हम सब मिल कर एक कदम बढ़ाएँ आज से ही...................???


एक विशेष बात:-  कृपया हर तीन साल पर अपने परिवार की एक बार एड्स जाँच जरूर करवाएँ। बेफ़िक्री अच्छी है, पर जिम्मेदारी के साथ। आभार...!

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