शनिवार, 14 सितंबर 2013

साहित्यिक आत्ममुग्धता का तुष्टिकरण






आपके लेखन पर किसी की टिप्पणी या समीक्षा। कितना महत्व है इन मामूली से दिखने वाले दो शब्दों का। अगर गहराई में जाकर देखें, तो ये मामूली से दिखने वाले शब्द भी बड़े असरदार साबित हो सकते हैं, आपके लेखन को नई दिशा देने में; बशर्ते आप उन्हें सही अर्थों में आत्मसात करें। कई बार उन बिन्दुओं की तरफ़ हमारा ध्यान नहीं जाता, जिनकी कसौटी पर कसकर एक पाठक हमारे लेख का मूल्यांकन करता है। पाठक या आलोचक के कहे कुछ शब्द ही हमारी सोच के दरवाजे खोल कर हमारे लेखन को नए पंख प्रदान करते हैं, ताकि हम नित नई उड़ान से उपलब्धियों के नित नए आसमाँ छू सकें।

इधर कुछ वर्षों से फ़ेसबुक और ब्लॉग जगत में काफ़ी लोग लेखन में सक्रिय हो गये हैं। लेकिन ज्यादातर लोगों में एक मानसिकता प्रबलता से देखने को मिली कि अगर आप किसी की रचना या लेख की तारीफ़ में कसीदे पढ़ते हैं, तो आपका स्वागत होगा, वरना या तो आपको इग्नोर कर दिया जाएगा या कुछ कटु शब्द आपके सामने परोस दिए जाएँगे। आश्चर्य तो तब होता है, जब ये मनोदशा उन बड़े लेखकों में भी देखने को मिलती है, जो आज साहित्य जगत के स्तम्भ माने जाते हैं। कभी-२ तो ऐसा लगता है कि जैसे ये लोग आमजन या अपने पाठकों के लिए नहीं, बल्कि आत्ममुग्धता की तुष्टि एवं पल्लवन के लिए लिखते हैं। अरे भाई, अगर आप लोग अपने आलोचकों का बाहें फ़ैलाकर खुले दिल से स्वागत नहीं कर सकते, तो यकीन मानिए आपकी प्रगति उल्टे पाँव लौटने के लिए पिछले दरवाजे पे खड़ी प्रतीक्षा कर रही है।

मैं ये नहीं कहती कि आप किसी के भी द्वारा कहे गए कुछ शब्दों से आहत हो जाएँ और अपने लेखन को गैर-मामूली समझने लगें; परन्तु अगर आलोचना सकारात्मक हो, तो उस पर समुचित ध्यान दिया जाना चाहिए।
एक कथन हमारे साहित्य जगत में प्रचलित है –

आलोचना का महत्व तभी तक है, जब आलोचक की कोई पात्रता हो।



वैसे भी अगर आपका लेखन किसी के दिल को छू लेता है, तो यकीन मानिए वो आपकी तारीफ़ में दो शब्द कहे बगैर नहीं जाएगा।
किसी शायर ने भी क्या खूब कहा है :--

लगी चहकने जहाँ भी बुलबुल, हुआ वहीं पे जमाल पैदा


कमी नहीं है कद्रदां की अकबर, करे तो कोई कमाल पैदा।



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