सोमवार, 27 अगस्त 2012

नन्हे-मुन्हे बच्चे तेरी मुठ्ठी में क्या है ?



अभी कुछ दिनों से एक अलग तरह की बयार फिजां में तैर रही है कि बच्चों को किस तरह संस्कार दिए जाएँ तथा कैसे उनमें अपने माता-पिता के प्रति प्यार एवं आदर उत्पन्न किया जाये...

इसकी एक बानगी फिल्म 'फेरारी की सवारी' में भी देखने को मिलती है... ऐसा नहीं है कि ये समस्या अभी हाल में ही उत्पन्न हुयी है, बल्कि ये काफी समय से हमारे समाज का हिस्सा बनी हुयी है...

फिल्म में जिस तरह सरमन जोशी अपने बेटे को संस्कारों से परिचित कराता है, वो एक मिसाल की तरह प्रतीत होते हैं और ये सिद्ध करते हैं कि संस्कारों को बच्चों के सामने कथनी की तरह नहीं, बल्कि करनी की तरह पेश करना चाहिए... एक और बात जो मन को अत्यधिक भावुक कर देती है, वो है नायक का अपनी हर समस्या को हँसते-२ सुलझाना और जिंदगी के मजे लेना...

आज जब हम Traffic Rules तोड़ने के बाद ये देखते हैं कि कहीं आसपास Traffic Police तो नहीं और ना होने पर चैन की साँस लेते हैं या होने पर कुछ पैसे दे कर केस रफा-दफा करवाना चाहते हैं... वहीँ फिल्म का नायक अपने बेटे के स्कूल की बातें सुनते-२ अनजाने में signal तोड़ने पर Traffic Police को ढूंढता है और वहां उसे ना पाकर अगले Traffic Signal पर जाकर चालान काटने को कहता है... जब Police वाला कहता है कि आपको किसी ने देखा तो था नहीं, आपको चले जाना चाहिए था; हम ऐसे चालान नहीं काटते... इस पर नायक अपने बेटे की तरफ इशारा करके कहता है कि मेरा बेटा देख रहा था... जब तक ये मुझे नियमों का पालन करते हुए देखेगा नहीं, तो खुद क्या सीखेगा... इस बात पर उसके बेटे की मुस्कुराहट एक सार्थक दृष्टिकोण की पुष्टि करती है...

एक और बात जो मुझे अत्यंत प्रेरणास्पद प्रतीत होती है, वो ये कि बच्चे के दादाजी का अत्यंत रूखेपन से पेश आने तथा बात-२ पर चिल्लाने के बावजूद नायक का अपने बेटे को समझाना कि अपने बड़ों से आदर से बात करते हैं तथा उनकी बात का बुरा नहीं मानते; ये वक्तव्य वर्तमान समय में बुजुर्गों के प्रति असहनशीलता की समस्या को उजागर करते हुए उसके समाधान को इंगित करता है...

इसके साथ ही नायक का अपनी कठिनाइयों के बावजूद अपने बच्चे की जरूरतों का ध्यान रखना तथा उन्हें पूरा करने की हर संभव कोशिश करना, उस बच्चे में भी जिम्मेदारी की भावना जाग्रत करता है; साथ ही हमें भी कुछ सिखा जाता है... वैसे एक बात तो समझ में आती है इस फिल्म को देखने के बाद कि बच्चों को सही ढंग से पलना 'बच्चों का खेल' नहीं होता...

वैसे मैं सभी माता-पिता से यही प्रार्थना करना चाहूंगी कि वो अपने बच्चों को समझने की कोशिश करें और ये एहसास करने की कोशिश करें कि 'बच्चे इतने भी बच्चे नहीं होते'...

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मंगलवार, 14 अगस्त 2012

नारी स्वातंत्र्य के असली मायने...



आपने अक्सर लोगों को नारी स्वतंत्रता के विषय में बात करते सुना होगा और शायद लोगों की नज़र में काफी हद तक नारी स्वतन्त्र हो भी चुकी है, पर क्या ये स्वतंत्रता सही मायने में नारी-स्वातंत्र्य है... क्या वेशभूषा, भाषा में क्रांतिकारी बदलाव, घूमना-फिरना, मनमानी आज़ादी यही नारी स्वतंत्रता है? क्या हासिल हुआ इस स्वतंत्रता से समाज को और नारी को भी.....??

सही मायनों में कहें तो इस आज़ादी से समाज दरकने लगा है, मूल्यों में गिरावट आई है... आज बच्चे माओं से दूर हो रहे हैं, जिससे उनमें अपसंस्कृति का विकास हो रहा है, समाज से अलग उनकी एक नयी ही दुनिया बन गयी है... एक समय में कहा जाता था कि नारी जगत-जननी है, जो आज मिथ्या साबित हो रहा है...

असल में देखा जाये तो आज भी नारी उतनी ही बंधन में है, जितनी पहले थी ( मुश्किल से १०% बदलाव आया होगा )... मैं यहाँ मानसिक सोच में स्वतंत्रता की बात कर रही हूँ... कितनी लड़कियां हैं, जो दहेज़ के खिलाफ आवाज़ उठाती हैं...? कितनी नारियां हैं, जो
अपने गर्भ में पल रहे मादा-भ्रूण की हत्या रोक पाती हैं...? कौन घरेलू-हिंसा के खिलाफ बोलता है...? कौन-सी नौकरी करने वाली लड़की अपने पति से पूछे बिना अपने वेतन में से कुछ रूपये अपने माता-पिता को देती है...? बहु बन कर सास-ससुर की सेवा तो करती हैं, पर क्या भाई ना होने पर अपने माता-पिता को घर ला कर उनकी जिम्मेदारी उठा सकती हैं...? क्या अपने परिवार से लड़ कर उतनी ही सुख-सुविधा अपनी बेटी को दे सकती हैं, जो उनके बेटे को मिलती है और सबसे बड़ी बात क्या वो पढाई करने, नौकरी करने, विवाह करने जैसे निर्णय स्वयं ले सकती है...? नहीं ना...?
फिर किस मायने में आप कह सकते हैं कि आज नारी स्वतन्त्र है...?

नारी के स्तर में सुधार की बात तो बाद में करेंगे, शुरुआत कन्याओं से कीजिये, जिन्हें आप देवी का अवतार कहते हैं... सबसे पहले तो उन्हें जन्म लेने और जीने का अधिकार दीजिये... उनका सही लालन-पालन कीजिये और उन्हें स्वतन्त्र निर्णय लेने के योग्य बनाईये... समाज में अपने बूते खड़े होने और समाज को सही दिशा देने का माद्दा उनमें पैदा कीजिये... नर और नारी किसी मायने में भिन्न नहीं, बस एक ही सिक्के के दो पहलू हैं... बस हमें अपना नजरिया भर बदलने की देर है, नजारा अपने-आप बदल जायेगा.....

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